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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अपरैकदेशवशाद्वृत्तिरित्यनवस्था प्रसक्तिः । अथाभिन्नास्तदा तेषां सामान्यरूपत्वात् तावन्ति सामान्यानि स्युः । न च सामान्यात्मकानां तेषां करणरूपता युक्ता येन तैः पिण्डेषु सामान्यं वर्तेत, न हि घटत्वादिसामान्यं गोत्वस्य पिण्डवृत्तौ करणत्वेनोपलब्धम् । न च सामान्यस्यानुवृत्त्येकरूपत्वात् कात्स्न्यैकदेशशब्दयोस्तत्राप्रवृत्तिः, निरवयवैकरूपेऽपि व्याप्त्यव्याप्तिशब्दयोर्भवतैव प्रवृत्त्यभ्युपगमात् तत्र च कृत्स्नैकदेशवृत्तिपक्षोक्तदोषाणां समानत्वात् अपरस्य चात्र वक्तव्यस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् । तन्न वृत्त्यनुपपत्तेः सामान्यस्य सत्त्वमभ्युपगन्तुं युक्तम् ।।
किञ्च, पिण्डोत्पत्तिकाले किं गवात्मकेन पिण्डेन गोत्वं सम्बध्यते उताऽगवात्मकेन ? यद्याद्यः पक्षस्तदा गोत्वसम्बन्धात् प्राक् पिण्डस्य यद्यपरगोत्वसम्बन्धाद् गोरूपता तदाऽनवस्थाप्रसक्तिः । अथ तत्सम्बन्धमन्तरेणाऽपि तस्य गोरूपता तदा गोत्वसम्बन्धवैयर्थ्यम् तमन्तरेणापि गोपिण्डस्य प्रागेव गोरूपत्वात् । अथागोरूपेण तदाऽगोरूपत्वाऽविशेषात् अश्वादिपिण्डैरपि गोत्वसम्बन्धप्रसक्तिः इत्यश्वादतो ये प्रश्न खडे होंगे कि वे देश अपने सामान्य से भिन्न हैं या अभिन्न ? भिन्न देशों में वह सामान्य रहता है या नहीं रहता ? रहता है तो एकदेश से रहता है या सम्पूर्णरूप से ? यदि सम्पूर्ण देश में रहेगा तो पूर्ववत् जितने देश उतने सामान्य को मानना होगा, क्योंकि एक एक देश में एक एक अलग अलग सामान्य ही पूर्णतया समाविष्ट हो रह सकता है । अथवा तो वह सामान्यरूप ही नहीं होगा क्योंकि घट की तरह अनेक प्रदेशों में रहता है । यदि वह अपने देशों में एकदेश से रहता है तो उन प्रश्नों की पुनरावृत्ति होगी - वे एक देश उस सामान्य से यदि भिन्न माने जायेंगे तो उन में भी नये एकदेश से सामान्य की वृत्तिता मानने पर अनवस्था प्रसंग होगा । यदि वे एक देश अभिन्न माने जायेंगे तो अभेद होने के कारण जितने देश उतने उन से अभिन्न सामान्य प्रसक्त्त होंगे । तथा, सामान्यात्मक एक देशों में करणरूपता भी नहीं घटेगी जिस से कि उन एकदेशों के माध्यम से सामान्य, पिण्डों में वास कर सके । कारण, सामान्य कभी करण नहीं होता, गोत्व को अपने पिण्ड में रहने के लिये घटत्वादि सामान्य करणरूप से सहयोगी बनता हो ऐसा कहीं भी दिखता नहीं । यदि ऐसा कहा जाय कि 'सामान्य तो सिर्फ एकमात्र अनुवृत्तिस्वभावरूप ही है, न कि द्रव्यादिरूप जिस से कि 'एकदेश और सम्पूर्ण' ऐसे शब्दजाल में वह फँसाया जा सके । - किन्तु यह गलत उक्ति है क्योंकि एकमात्र निरवयवस्वरूप (संयोग-रूपादि) वस्तु के लिये खुद आप भी व्याप्यवृत्ति-अव्याप्यवृत्ति आदि शब्दों के प्रयोग करते हुए दृष्टि में आ चुके हैं । वहाँ भी एकदेशवृत्ति और सम्पूर्णवृत्ति दो पक्षों में बताये गये दोष समानरूप से लागू हैं , अतः एकदेश-सम्पूर्णवृत्ति के लिये आपने जो वक्तव्य दिया है उसका पहले जैसे निषेध किया जा चुका है वैसे यहाँ भी समझ लेना । निष्कर्ष यह है कि वृत्तित्व का उपपादन सम्भव न होने से सामान्य की सत्ता को अंगीकार करना अनुचित है।
* गोत्व का सम्बन्ध गो-पिण्ड से या अगोस्वरूप पिण्ड से * और भी विमर्श किजिये - पिण्ड के उत्पत्तिकाल में गोत्व किस से सम्बन्ध करता है 'गो' स्वरूप पिण्ड से या 'अ-गो' स्वरूप पिण्ड से ? प्रथम पक्ष में, गोत्व संयोजन से पहले वह पिण्ड 'गो' स्वरूप कैसे बन गया ? यदि अन्य गोत्व के सम्बन्ध से बना तो उस अन्य गोत्व के सम्बन्ध के पहले भी अन्य गोत्व का सम्बन्ध.. इस तरह मानने पर अनवस्था प्रसंग होगा । यदि गोत्व सम्बन्ध के पूर्व में अन्य गोत्व सम्बन्ध के विना ही स्वतः वह 'गो' स्वरूप है तब तो किसी भी गोत्व के योग की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसके विना भी
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