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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ १६१ मन्तरेणापि स्वरूपेणोपलब्धेर्नाभावः, गोत्वादेस्तु प्रतिनियतपिण्डोपलम्भमन्तरेण स्वरूपेण कदाचनाऽपि अनुपलब्धेरभाव एव । तेन 'तदग्रहे तबुद्ध्यभावात्' इत्यत्र 'सामान्याभिव्यञ्जकपिण्डग्रहण एव तदभिव्यङ्ग्यसामान्यबुद्धिसद्भावात् - प्रकाशग्रहणे एव गृह्यमाणघटादिसत्त्ववत् - सामान्यस्यापि सत्त्वम्' इति यदुक्तं तद् निरस्तं भवति घटनिमित्तघटबुद्धिवत् सामान्यनिबन्धनत्वेन तद्बुद्धेरसिद्धेः ।। किञ्च, सामान्यं निराधारं वाऽभ्युपगम्येत आधारवद्वा ? यदि निराधारम् न सामान्यं स्यात् अनाधारत्वात् शशशृङ्गवत् । आधारवत्त्वेऽपि तस्य तत्र वृत्त्यनुपपत्तिः । तथाहि – तस्यैकदेशेन वा तत्र वृत्तिर्भवेत् सर्वात्मना वा ? सर्वात्मना वृत्तावेकस्मिन्नेव पिण्डे सर्वात्मना परिसमाप्तत्वाद् यावन्तः पिण्डाः तावन्ति सामान्यानि स्युः, न वा सामान्यम् एकपिण्डवृत्तित्वाद् रूपादिवत् । एकदेशवृत्तावपि न सामान्यं स्यात् सामान्यस्य निरंशत्वेनैकदेशाऽसम्भवात् । सम्भवेऽपि ते ततो भिन्ना वा स्युः अभिन्ना वा ? यदि भिन्नास्तदा तेषु सामान्यं वर्त्तत उत नेति ? यदि वर्तते तदा किं सर्वात्मना उतैकदेशेन ? यदि सर्वात्मना, तावत्सामान्यप्रसक्तिः प्रत्येकमेकदेशे तस्य परिसमाप्तत्वात्, न वा सामान्यम् प्रदेशवृत्तित्वाद् घटवत् । अथैकदेशेन एकदेशेषु वृत्ति; तदा तेऽप्येकदेशा यदि ततो भिन्नास्तदा तेष्वपि हो सकता है न कि अभाव होने से । ऐसा न माने तो वहाँ बेर का भी अभाव मानना होगा जहाँ कुण्डात्मक आधार न दिखने पर बेर रूप आधेय भी नहीं देखाई देगा । प्रतिवादी :- यह कथन अयुक्त है । कारण, बेर की स्वतन्त्र उपलबद्धि उस के नियत आधार का अनुपलम्भ होने पर भी हो सकती है अतः आधार अनुपलब्ध रहने पर बेर के अभाव का प्रदर्शन अनुचित है, किन्तु प्रस्तुत में नियत पिण्डोपलम्भ के विना कभी भी स्वरूपत: गोत्वादि जाति की उपलब्धि नहीं होती, अत: उस के, व्यक्ति से अतिरिक्त होने का निषेध हो सकता है । अतः व्यक्ति का ग्रहण न होने पर जाति का भान नहीं होता, इसलिये यहाँ जो सामान्यवादी का कहना है कि 'सामान्य के व्यञ्जक पिण्ड का ग्रहण हाने पर ही पिण्ड से अभिव्यङ्ग्य सामान्य की उपलद्धि होती है । जैसे, प्रकाश का ग्रहण होने पर ही गृहीत होने वाले घटादि का सत्त्व सिद्ध होता है, वैसे ही अभिव्यङ्ग्य सामान्य का भी सत्त्व सिद्ध होता है ।' – यह कथन गलत सिद्ध होता है, क्योंकि जैसे घट की बुद्धि घटसत्त्वमूलक सिद्ध होती है वैसे यहाँ सामान्याकारबुद्धि सामान्यमूलक सिद्ध नहीं है, किन्तु व्यक्तिमूलक ही होती है । * सामान्य की वृत्ति पर एकदेश-पूर्णता विकल्प * और भी सोचिये - सामान्य को निराधार माना जाय या साधार ? जो निराधार है वह आधारशून्य होने से शशसींग की भाँति सामान्यात्मक नहीं हो सकता । यदि उसे आधारयुक्त माना जाय तो भी आधार में उसकी वृत्तिता का उपपादन कठिन है । देखिये - सामान्य की आधार में वृत्तिता एकदेश से होगी या सम्पूर्णरूप से ? यदि सामान्य को सम्पूर्णरूप से आधार में रहनेवाला माना जाय तो एक ही पिण्ड में उसका पूर्णतया समावेश हो जाने से अन्य पिण्डों में अन्य अन्य सामान्य को रखना होगा, यानी जितने गो-पिण्ड उतने गोत्वसामान्य मानने होंगे । यदि उतने न मान कर एक ही मानेंगे तो उसकी सामान्यरूपता का भंग हो जायेगा, क्योंकि रूपादि की तरह वह भी सिर्फ एक ही पिण्ड में रहनेवाला है । यदि एक देश से वृत्तिता मानी जाय तो वह सम्भव नहीं है क्योंकि सामान्य को निरंश माना गया है अतः उसके कोई देश ही सम्भव नहीं है, अतः एकदेश से रहनेवाला पदार्थ सामान्यात्मक नहीं हो सकता । यदि उसके देश(अंश) भी मान लिये जाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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