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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
न सामान्यं स्याद् रूपवत् । अथ मूर्त्तम् तथा च न सामान्यं घटादिवत् । तथा, यदि अनंशं सामान्यमभ्युपगम्यते तर्हि न सामान्यमनंशत्वात् परमाणुवत् । सांशत्वेऽपि न सामान्यम् घटवत् । किञ्च, यदि पिण्डेभ्यो भिन्नं सामान्यम्, भेदेनैवोपलभ्येत घटादिभ्य इव पटः । न चैकान्ततो व्यक्तिभ्यः सामान्यस्य भेदे ‘गोर्गोत्वम्' इति व्यपदेशोपपत्तिः सम्बन्धाभावात्, समवायस्य तत्सम्बन्धत्वेन निषेत्स्यमानत्वात् । व्यक्तिभ्यस्तस्याऽभेदेऽन्यत्राननुयायित्वाद् न सामान्यरूपता पिण्डस्वरूपवत् । न च भेदेन व्यक्तिभ्यस्तस्याऽनुपलक्षणं भिन्नप्रतिभासविषयत्वादसिद्धम्, बुद्धिभेदस्य व्यक्ति-निमित्तत्वेन प्रतिपादनात् । किञ्च, यदि सामान्यबुद्धिर्व्यक्तिभिन्नसामान्यनिबन्धना भवेत् तदा व्यक्त्यग्रहणेऽपि भवेदश्वबुद्धिवद् गोपिण्डाऽग्रहणे, न च कदाचित् तथा भवेत् । ततो न व्यक्तिव्यतिरिक्तसामान्य
सद्भावः ।
अथाधारप्रतिपत्तिमन्तरेणाधेयप्रतिपत्तिर्न भवतीति तद्ग्रह एव तद्ग्रहः नाऽभावात्, अन्यथा कुण्डाद्याधारप्रतिपत्तिमन्तरेण बदराधेयस्याऽप्रतिपत्तेः तस्याप्यभाव एव स्यात् । न बदरादेः प्रतिनियताधार
नहीं हो सकती जैसे 'रूप' अमूर्त है और सामान्यात्मक नहीं है । मूर्त्त वस्तु भी सामान्यरूप नहीं हो सकती जैसे घट मूर्त्त है तो वह सामान्यात्मक नहीं है । सामान्य यदि निरंश माना जाय तो परमाणु की तरह वह सामान्यात्मक नहीं होगा क्योकि निरंश है । यदि अंशवत् माना जाय तो घट की तरह वह 'सामान्य' नहीं होगा ।
* भेदाभेद विकल्पों की अनुपपत्ति *
उपरांत, भेदाभेद विकल्प भी प्रसक्त हैं, सामान्य यदि पिण्डों से सर्वथा भिन्न होगा तो सदा के लिये घटादि से भिन्न वस्त्र की तरह पिण्डों से पृथक् ही उपलब्ध होगा । तथा, सामान्य एकान्तरूप से व्यक्तियों से भिन्न होगा तो 'गाय का गोत्व' इस प्रकार व्यवहार शक्य नहीं होगा क्योंकि एकान्त भेद में कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । समवाय भी वहाँ सम्बन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि सामान्य विशेष के बाद समवाय का भी निरसन आगे किया जायेगा । यदि सामान्य व्यक्तियों से एकान्तरूप से अभिन्न होगा तो जिस एक पिण्ड में रहेगा उसी में समाविष्ट हो जाने से अन्य पिण्ड में उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकेगी, जैसे एक पिण्ड के स्वरूप की अन्य पिण्ड में अनुगामिता नहीं होती । अतः अनुवृत्तिविरह के कारण वह सामान्यरूप नहीं रहेगा । यदि कहा जाय - पिण्डादि से अतिरिक्त सामान्य उपलक्षित नहीं होता इस बात में कोई तथ्य नहीं है क्योकि पिण्डादि से अतिरिक्त स्वरूप गोत्वादिसामान्य का अनुगताकार प्रतिभासगोचर होना सुविदित है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि पहले ही कह आये हैं कि अनुगताकार प्रतीति विशेषव्यक्तिमूलक ही होती है न कि सामान्य - मूलक । तथा, सामान्यबुद्धि यदि व्यक्तिभिन्न सामान्य - मूलक मानी जाय तो कभी व्यक्ति अगृहीत रहने पर भी सामान्य का ग्रहण हो सकता है, जैसे गो- व्यक्ति अगृहीत रहने पर भी गो से सर्वथा भिन्न अश्व का ग्रहण होता है । किन्तु तथ्य यह है कि व्यक्ति के अज्ञात रहने पर कभी भी सामान्यबुद्धि नहीं होती । अतः व्यक्ति से भिन्न सामान्य का सद्भाव नहीं है यह फलित होता है ।
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* सामान्याभाव ही भेदग्रहाभावप्रयोजक
सामान्यवादी :- अधार का ज्ञान न होने पर आधेय का ज्ञान नहीं होता यह नियम है । अतः व्यक्ति का ग्रहण होने पर ही सामान्य का ग्रहण हो सकता है । अतः गोत्वादि सामान्य का अग्रहण व्यक्ति - अग्रहणमूलक
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