SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पश्ञ्चमः खण्डः का० ४९ १५९ पयितुं शक्यम् । यदपि कार्यभूतानुगतप्रत्ययेनानुमानतः सामान्यव्यवस्थापनम् • तदप्यसंगतम् तस्य प्रत्ययहेतुत्वेन प्रमाणतोऽनिश्चयात् । तथाहि अनुगताकारज्ञानस्य निर्निमित्तस्याऽसम्भवात् केनचिन्निमित्तेन भाव्यभित्येतावन्मात्रं सिध्यति । तच्च सामान्यम् अन्यद्वेति न निश्चयो भवताम् । कार्यान्वय - व्यतिरेकाभ्यां च कारणत्वावधारणम् पिण्डानाञ्च विज्ञानजन्मनि ततः सामार्थ्यं विशेषप्रत्यये सिद्धमितीहापि तेषामेव सामर्थ्यप्रकल्पनम्, न सामान्यस्य तस्य क्वचिदपि सामर्थ्यानवधारणात् । तथाहि—पिण्डसद्भावेऽनुगताकारं ज्ञानमुपलभ्यते तदभावे नेति वरमध्यक्षप्रत्ययावसेयानां तेषामेव तन्नि मित्तता कल्पनीया । - " यदपि ‘पिण्डानामविशिष्टत्वात् प्रतिनियमो न स्यात् तज्जन्मनि' इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम्; यतो यथा पिण्डादिरूपतयाऽविशेषेऽपि तन्तूनामेव पटजन्मनि हेतुत्वम् न कपालादीनाम् तथा शाबलेयादी - नामेव 'गौः गौः' इति ज्ञानोत्पादने सामर्थ्यं भविष्यति कयाचिद् युक्त्या न कर्कादीनाम् । यथा वा गडूच्यादेरेव ज्वरादिशमने सामर्थ्यं प्रतीयते न दध्यादेर्वस्तुरूपतयाऽविशेषेऽपि तथा प्रकृतेऽपि भविष्यतीति न पर्यनुयोगो युक्तः । किञ्च सामान्यं परेण मूर्त्तमभ्युपगम्यतेऽमूर्त्तं वा ? यद्यमूर्त्तम् हो सकता है कि उस अनुगताकार प्रतीति का कोई निमित्त होना चाहिये क्योंकि विना निमित्त के अनुगताकार बोध सम्भव नहीं है । फिर भी उस अनुमान से आप यह निश्चय नहीं कर पाते कि वह निमित्त 'सामान्य' ही है या अन्य कोई । यह सुनिश्चित तथ्य है कि कारणता का निश्चय कार्यानुगामी अन्वय- व्यतिरेक सहचार से होता है, जब विना किसी स्वतन्त्र विशेष को माने भी विशेषाकार प्रतीतिरूप विज्ञान की उत्पत्ति के प्रति गाय आदि पिण्डों को ही सक्षम माने जाते हैं वैसे ही अतिरिक्त सामान्य के विना भी उन्हीं पिण्डों में ही समानाकार बोध का जननसामर्थ्य मान सकते हैं न कि सामान्य में, क्योंकि किसी भी दाहादि क्रिया के प्रति सामान्य का सामर्थ्य निश्चित नहीं है । स्पष्ट तथ्य यह फलित होता है पिण्ड के होते हुए समानाकार ज्ञान उपलब्ध होता है, पिण्ड के विरह में वह उपलब्ध नहीं होता, अतः प्रत्यक्षप्रतीतिगोचर पिण्डों में ही अनुगताकारप्रत की हेतुता मान लेनी चाहिये । I * अश्वादि से गो-बुद्धि की आपत्ति निरवकाश यह जो कहा था - पिण्डमात्र से ही समानाकार बुद्धि का जन्म मानने पर अश्वादि पिण्डों से भी ' गायगाय' ऐसी बुद्धि सम्भव होने से कोई नियम ही नहीं रहेगा क्योंकि पिण्डरूपता गाय और अश्वादिपिण्डों में समानरूप से मौजूद है यह कथन गलत है । कारण, तन्तु – कपालादि में पिण्डरूपता साधारण हाने पर भी वस्त्र के प्रति तन्तु और घट के प्रति कपाल ही हेतु बनता है, वस्त्र के प्रति तन्तु हेतु नहीं होता यह प्रसिद्ध तथ्य है वैसे ही अश्वादि और शबलवर्ण गो आदि में पिण्डरूपता साधारण होने पर भी शबलवर्ण गो आदि में ही समानाकार 'गाय गाय' ज्ञान का जननसामर्थ्य रहेगा न कि अश्वादि में, चाहे कोई भी युक्ति यहाँ साधक बनेगी । अथवा गलो - औषधि और दहीं आदि में वस्तुरूपता साधारण होने पर भी बुखार के शमन में गलो - सुदर्शनचूर्ण आदि का ही सामर्थ्य होता है न कि दहीं का, इसी तरह 'गाय - गाय' समानाकार बुद्धि के लिये भी समाधान सुलभ है । यहाँ गलो आदि भिन्न भिन्न औषधियों में कोई 'सामान्य' नहीं माना जाता तो वैसे ही शबलवर्णादि में भी सामान्य का प्रश्न निरर्थक है । Jain Educationa International - * सामान्यसमीक्षा में मूर्त्तामूर्त्त विकल्प मूर्त्तत्वादि विकल्प भी प्रसक्त हैं, जैसे देखिये - सामान्य मूर्त्त है या अमूर्त्त ? अमूर्त वस्तु सामान्यरूप For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy