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पञ्चमः खण्डः - का० ४९
१६३ योऽपि गोरूपाः स्युः । न चाऽगोरूपत्वाऽविशेषेऽपि गोत्वसम्बन्धात् प्राक् शाबलेयादिभिरेव गोत्वं सम्बध्यते न कर्कादिभिरिति वक्त्तव्यम्, नियमहेतोरभावात् । अथोपलक्षणभेदो नियमहेतुः । तथाहि - यत्र ककुदादीन्युपलक्षणानि पिण्डे तत्रैव गोत्वं वर्त्तते न केसराद्युपलक्षणवति । असदेतत् – गोत्वादेरचेतनत्वेन निरभिप्रायस्य प्रदर्शितोपलक्षणप्रत्यभिज्ञानवशादन्यपरिहारेण प्रतिनियताधारवृत्तित्वानुपपत्तेः । न च ककुदाद्युपलक्षणयोगिनः पिण्डादेः स्वात्मनि गोत्वाधारसामर्थ्य प्रतिनियतं निमित्तं कल्पयितुं युक्तम्, यतो यया शक्त्या ककुदादिमन्तः पिण्डविशेषाः गोत्वसामान्यं विजातीयपिण्डव्यवच्छेदेन स्वात्मनि व्यवस्थापयन्ति तयैव 'गौः गौः' इत्यनुगताकारज्ञानहेतवोऽपि भविष्यन्तीति किमन्तर्गडुसामान्यप्रकल्पनया । न चादृष्टं गोत्वादेः सामान्यस्य प्रतिनियतव्यक्तिवृत्तिनिमित्तं कल्पनीयम्, तत्रापि अस्य दूषणस्य समानत्वात् ।
यदपि 'अनुगताकारं ज्ञानं सामान्यमन्तरेणाऽसम्भवि' इति, तत्रापि किं यत्रानुगतं ज्ञानं तत्र पहले वह गोपिण्ड स्वयं 'गो' स्वरूप ही है । यदि कहें कि गोत्वसम्बन्ध के पहले वह ‘अगो' स्वरूप ही था, तो अब ऐसा होगा कि गोत्व सम्बन्ध के पहले गो-अश्वादि सकल पिण्ड समानरूप से अगोस्वरूप होते हैं
और बाद में अगोस्वरूप पिण्ड से गोत्व का सम्बन्ध होता है अत: गाय की तरह अश्वादि पिण्डों में भी वह होगा, फलस्वरूप अश्वादि भी गो-स्वरूप बन जायेंगे । ऐसा नियम नहीं बता सकते कि - अगोरूपता समान होने पर भी गोत्व सम्बन्ध होने के पहले जो शबलवर्णादिरूप है उसी के साथ गोत्व का सम्बन्ध होगा, अश्वादि के साथ नहीं होगा । - क्योंकि नियमप्रयोजक कोई हेतु नहीं है।
यदि ऐसा कहें कि - ‘लक्षण-भेद ही नियमप्रयोजक है । जैसे देखिये - 'जिस पिण्ड में खूध-सींग इत्यादि उपलक्षण होते हैं (यानी भावि में फूटने वाले हैं) उसी में गोत्व सम्बद्ध होता है, केसरादि लक्षणों वाले पिण्ड में सम्बद्ध नही होता ।' - यह असत् प्रलाप है क्योंकि यह तो आप के अन्तःकरण के अभिप्राय का प्रदर्शन है न कि गोत्वादि के । गोत्वादि अचेतन है अतः उन में यह विवेकबुद्धि नहीं होती कि 'मुझे सामान्यवादी प्रदर्शित खंध आदि लक्षण वाले पिण्ड से ही सम्बद्ध होना है और केसरादिलक्षणवाले पिण्ड का परिहार करना है । 'अतः गोत्वादि में नियताधारता का उपपादन दुःशक्य है । यदि ऐसी कल्पना की जाय कि 'खूध आदि लक्षणवाले पिण्डों का अपने में ही नियत निमित्तभूत ऐसा सामर्थ्य होता है कि वे गोत्व को चुम्बक की तरह अपनी ओर खिंच कर गोत्व के आधार बन सकेंगे, अश्वादि में वह सामर्थ्य न होने से वे गोत्व के आधार नहीं बनेंगे ।' - ऐसी कल्पना अयुक्त्त है क्योंकि खूध आदिलक्षणवाले विशिष्ट पिण्डों में गोत्वसामान्य को अन्यपिण्डों से सम्बद्ध न होने देने और खिंच कर अपने में रख लेने के लिये जिस सामर्थ्य की कल्पना की जाती है, उस के बदले 'गाय-गाय' ऐसे अनुगताकार ज्ञान को ही उत्पन्न करने में उन के उस सामर्थ्य की कल्पना कर ली जाय तो सुविधा रहेगी, फिर बीच में निरर्थक गोत्वसामान्य की कल्पना का कष्ट क्यों उठाया जाय ? यदि गोत्वादिसामान्य सिर्फ गोस्वरूप नियत पिण्डों में ही रह सके उसके लिये अदृष्ट किसी निमित्त की कल्पना की जाय तो उसके बदले अनुगताकार प्रतीति के निमित्तरूप में ही उस अदृष्ट की कल्पना कर लेनी चाहिये, इस प्रकार सामर्थ्य और अदृष्ट निमित्त की कल्पना में समान दोष है गोत्वसामान्य की निरर्थकता ।
* अनुगताकारज्ञान सामान्यविरह में भी * यह जो कहा था - सामान्य के विना अनुगताकार ज्ञान नहीं हो सकता – उस के ऊपर प्रश्न है, आप
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