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___ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् आश्रयमन्तरेणाऽऽश्रितानां सद्भावेऽनाश्रितत्वप्रसङ्गात् । तथापि परेषां तत्राभिनिवेश इति पराभ्युपगमप्रदर्शनपूर्वकः तद्विशेषप्रतिषेधप्रदर्शनमार्गः प्रदर्श्यते । ____ तत्र सामान्यं द्विविधम् परम् अपरश्च । परं सत्ताख्यम् तच्च त्रिषु द्रव्य-गुण-कर्मसु पदार्थेषु अनुवृत्तिप्रत्ययस्यैव कारणत्वात् सामान्यमेव न विशेषः । अपरं तु द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्वादिलक्षणम् तच्च स्वाश्रयेषु द्रव्यादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यमित्युच्यते । स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो व्यावृत्तप्रत्ययहेतुतया विशेषणात् सामान्यमपि सद् विशेषसंज्ञां लभते । तथाहि - द्रव्यादिषु 'अगुणः' इत्यादिका येयं व्यावृत्तबुद्धिरुत्पद्यते तां प्रत्येषामेव हेतुत्वं नान्यस्य । न हि अगुणत्वादिकमपरमस्ति । अपेक्षाभेदाच्चैकस्य सामान्यविशेषभावो न विरुध्यते । यद्वा सामान्यरूपता मुख्यतः विशेषसंज्ञा तूपचारतः, है किन्तु जब उन तीन पदार्थों का निरसन हो गया तो ‘सामान्य' जो उन का आश्रित होने से उन के विना रह ही नहीं सकता, उस का अनायास निरसन हो जाता है। यदि आश्रय के विना भी आश्रित के अड़े रहने की कल्पना करेंगे तो उसके आश्रितत्वस्वरूप का ही भंग-प्रसंग सिर ऊठायेगा । तथ्य इतना स्पष्ट होने पर भी अन्य वादीयों को सामान्य के स्वीकार में दृढ आग्रह है तो एक बार उस के अस्तित्व का अनैच्छिक स्वीकार करके हम यह प्रदर्शित करेंगे कि कल्पित सामान्य में अनेक बाबतों का मेल नहीं खाता ।
* सामान्य के परापरभेद * सामान्य के दो प्रकार हैं पर और अपर । ‘सत्ता' ही पर सामान्य है क्योंकि वह सर्वाधिक व्यापक सामान्य है । यदि सत्ता से भी अधिक व्यापक कोई सामान्य होता तो वही 'पर' हो जाता और सत्ता अपर बन जाती, किन्तु वैसा है नहीं । सत्ता द्रव्य, गुण और कर्म तीनों पदार्थों में रहती है क्योंकि 'द्रव्य सत् है गुण सत् है क्रिया सत् हैं। ऐसा अनुगत सत्ताप्रत्यय तीनों में होता है । ‘सत्ता' सिर्फ इस अनुगतप्रतीति में ही हेतु बनती है न कि किसी व्यावृत्तप्रतीति में, अत: वह ‘सामान्य रूप ही है न कि विशेषरूप भी । द्रव्यत्व गुणत्व या कर्मत्व इत्यादि अपर सामान्य हैं । ये द्रव्यत्वादि, अपने आश्रयभूत द्रव्यादि के विषय में अनुगतप्रतीति के हेतु बनते है अतः उन्हे 'सामान्य' संज्ञा प्राप्त है, दूसरी ओर अपने आश्रयभूत द्रव्यादि को विजातीय गणादि पदार्थों से व्यावृत्तिप्रतीति को भी जन्म देते हैं, इस प्रकार भेदप्रकाशानात्मक 'विशेषण' रूप कार्य करने से उसे 'विशेष' संज्ञा भी प्राप्त है । स्पष्टता - द्रव्य के बारे में 'यह गुण नहीं है' ऐसी जो व्यावृत्तिआकार बुद्धि उत्पन्न होती है उस के प्रति भी द्रव्यत्वादि अपर सामान्य ही हेतु होते हैं न कि अन्य कोई । अगुणत्वादि किसी अपर सामान्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं है कि जिस से 'अगुणः' इत्यादि आकार बुद्धि का जन्म हो सके । एक ही सामान्य में अपेक्षाभेद से सामान्यरूपता और विशेषरूपता दोनों के स्वीकार में कोई विरोध नहीं है, सामानाकारबुद्धि के जन्म की अपेक्षा सामान्यरूपता और भेदाकारबुद्धिजन्म की अपेक्षा विशेषरूपता दोनों समानाधिकरण हो सकते हैं । यदि इसमें अनेकान्तवादप्रवेश का डर हो तो ऐसा भी कह सकते हैं कि मुख्यतया द्रव्यत्वादि में सामान्यरूपता ही है, उपचार से उन में 'विशेष' संज्ञा की प्रवृत्ति हो सकती हैं क्योंकि स्वतन्त्र विशेषपदार्थ की तरह द्रव्यत्वादि भी व्यावृत्ताकार बुद्धि के जनक होते हैं । सामान्य प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध हैं, क्योंकि इन्द्रियसंनिकर्ष से अनुगताकार प्रतीति जन्म लेती है, इन्द्रियसंनिकर्ष न होने पर अनुगताकार प्रतीति जन्म नहीं लेती ।
* सामान्य का साधक अनुमान * अनुमान प्रमाण से भी सामान्य सिद्ध है । देखिये – भिन्न भिन्न खण्डित, मुण्डित, शबलवर्ण आदि गोपिण्डों
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