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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ १५७ विशेषाणामिव द्रव्यत्वादीनामपि व्यावृत्तबुद्धिनिबन्धनत्वात् । सामान्यस्य चेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यनुगताकारप्रत्ययग्राह्यत्वादध्यक्षतः प्रसिद्धिः । ___ तथा, अनुमानाच्च । तथाहि - व्यावृत्तेषु खण्ड-मुण्ड-शाबलेयादिषु अनुगताकारः प्रत्ययः तद्व्यतिरिक्तानुगताकारनिमित्तनिबन्धनः व्यावृत्तेष्वनुगताकारप्रत्ययत्वात्; यो यो व्यावृत्तेष्वनुगताकारः प्रत्ययः स स तद्व्यतिरिक्तानुगतनिमित्तनिबन्धनः यथा चर्म-चीर-कम्बलेषु नीलप्रत्ययः, तथा चायं शाबलेयादिषु 'गौः' 'गौः' इति प्रत्ययः, तस्मात् तद्व्यतिरिक्तानुगताकारनिमित्तनिबन्धनः इति । तथाहि – नेदमनुस्यूताकारज्ञानं पिण्डेषु निर्हेतुकम् कादाचित्कत्वात् । न शाबलेयादिपिण्डनिबन्धनम् तेषां व्यावृत्तरूपत्वात् अस्य चानुगतरूपत्वात् । यदि चेदं पिण्डमात्रप्रभवं स्यात् तदा शाबलेयादिष्विव कर्कादिष्वपि 'गौः गौः' इत्युल्लेखेनोत्पद्येत पिण्डरूपतायास्तेष्वपि अविशेषात् । अथ वाहदोहाद्यर्थक्रियानिबन्धनेष्वेव तेषु 'गौः गौः' इति प्रत्ययहेतुता । न, तदर्थक्रियाऽभावेऽपि वत्सादौ गोबुद्धिप्रवृत्तेर्महिष्यादौ तत्सद्भावेऽपि चाऽप्रवृत्तेः । किञ्च, अर्थक्रियाया अपि प्रतिव्यक्तिभेदे कुतोऽनुगताकारज्ञानहेतुता ? अभेदे सिद्धमनुगतनिमित्तनिबन्धनत्वमस्य ज्ञानस्य । न चास्य बाधितत्वम्, सर्वदा सर्वत्र सर्वप्रमातृणां शाबलेयादिषु में 'यह गाय है' ऐसा जो समानाकार बोध होता है वह उन पिण्डों से अतिरिक्त समानाकाररूप निमित्त से प्रभावित है क्योंकि वह भिन्न पिण्डों में सामानाकारप्रतीति रूप है । भिन्न भिन्न व्यक्ति में जो सामानाकारप्रतीति होती है वह उन व्यक्तियों से पृथक् एक निमित्त से जन्य होती है जैसे - चमडा, वस्त्रखंड, कम्बलादि में नीलाकार प्रतीति. चर्मादि से अतिरिक्त्त नील रूप से जन्य होती है। ऐसे ही शबलवर्णादि पिण्डों में । गाय है' ऐसी प्रतीति होती है, अत: वह भी उन पिण्डों से अतिरिक्त समान 'गोत्व' रूप सामान्य से जन्य होनी जाहिये । इस तथ्य की दृढता देखिये - भिन्न भिन्न पिण्डों में यह अनुविद्धाकार ज्ञान कभी कभी ही होता है इसलिये निर्हेतुक नहीं हो सकता । शबलवर्णादि पिण्डमात्रमूलक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे पिण्ड परस्पर भिन्नस्वरूप हैं जब कि यह प्रतीति अभेदाकारवगाही है । सिर्फ पिण्डमात्र से ही यदि वैसी प्रतीति बन सकती तो अश्वादि पिण्डों में भी 'यह गाय है. वह भी गाय है। ऐसे उल्लेख के साथ उत्पन्न हो जाती. क्योंकि अश्वादि में समानरूप से गाय आदि की तरह पिण्डरूपता विद्यमान है । यदि कहा जाय - 'जिन पिण्डों से वहनदोहनादिक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं उन में ही 'यह गौ है – गौ है' इस प्रकार के बोध की हेतुता मान ली जाय तो अश्वादि से वैसी प्रतीति होने का प्रसंग नहीं रहता और अतिरिक्त निमित्त मानने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी' – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दोहनादि अर्थक्रिया के विरह में, बछडे आदि में 'गाय' बुद्धि प्रवर्त्तमान है, दूसरी ओर दोहनादि क्रिया के रहते हुए भी महिषी आदि में गो-बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती, अत: समानाकार प्रतीति को अर्थक्रियामूलक मानना असम्भव है । * विभिन्न पिण्डों में समानाकारज्ञान का निमित्त * दूसरी बात यह भी है कि भिन्न भिन्न पिण्डों की अर्थक्रिया भी भिन्न भिन्न होती है, तो उन में जो समानाकार ज्ञान होगा उसका हेतु किस को बतायेंगे ? उन अर्थक्रियाओं में तो अन्य कोई अर्थक्रिया नहीं होती । तब यदि भिन्न भिन्न पिण्डों में पिण्डभेद से अर्थक्रियाभेद न मान कर सभी पिण्डों में एक ही अर्थक्रिया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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