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पञ्चमः खण्डः का० ४९
त्पादिरूपादिव्यतिरेकेणेन्द्रियज्ञाने कर्मणः प्रतिभासानुपलक्षणादुत्क्षेपणादिबुद्धेस्तु साभिजल्पत्वात् अनध्यक्षत्वम् । न चेयं कर्मपदार्थानुभवसामर्थ्यभाविनी, यथासंकेतं तथोत्पद्यमानरूपादिवशेनोत्पत्तेः, ‘नित्याऽनित्ययोर्गत्ययोगात्' इति प्रतिपादनात् । गतिव्यवहारस्तु लोकेऽपरापरनैरन्तर्योत्पत्तिमत्पदार्थो - पलब्धेः ‘स एवायं गच्छति' इति भ्रान्त्युत्पत्तेः प्रदीपादौ गमनव्यवहारवदुपपद्यत एव । न हि प्रदीपादिः स एव देशान्तरमाक्रामति षट्क्षणस्थायित्वेन तस्य परैरभ्युपगमात् । “स्वकारणसम्बन्धकालः प्रथमः ततः स्वसामान्याभिव्यक्तिकालः ततोऽवयवकर्मकालः ततोऽवयवविभागकालः ततः स्वारम्भकावयवसंयोगविनाशकालः ततो द्रव्यविनाशकाल : ” ( इति प्रक्रियोपवर्णनात् । अथ च तत्रापि ' स एव प्रदीपादिर्गच्छति' इति व्यवहारप्रवृत्तिरिति नान्यथासिद्धाद् व्यवहारमात्राद् द्रव्यव्यतिरिक्तकर्माभ्युप-गमः श्रेयानिति स्थितम् ॥
पराऽपरभेदभिन्नं सामान्यमपि द्रव्य-गुण-कर्मात्मकपदार्थत्रयाश्रितत्वाभ्युपगमात् तन्निरासान्निरस्तमेव रूप से व्यवहार योग्य नहीं है । इस तरह अनुपलब्धि से प्रत्यक्ष विरोध फलित जाता है । इन्द्रियजन्य ज्ञान में क्षण क्षण में अग्रिमाग्रिमप्रदेश का अवष्टम्भ यानी आशरा ले कर नये नये रूपादि का उद्भव दिखाई देता है किन्तु उन से अधिक कर्म का प्रतिभास महसूस नहीं होता । ' उत्क्षेपणादि बुद्धि भी होती है उसको क्यों छिपाते हैं ?' छिपाने की बात नहीं है, वहाँ जो ऊर्ध्वादि दिशा की ओर नये नये रूपादि की उत्पत्ति होती है उस को देख पूर्व वासना के अनुसार मन में जो अभिजल्प होता है 'यह ऊपर जा रहा है' उसी का अनुभव होता है, कर्म का नहीं । और शब्दानुविद्ध यह बुद्धि प्रत्यक्षरूप नहीं होती । उस बुद्धि में ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि वह कर्मात्मक स्वतन्त्र भाव का अनुभव निपजावे । वह तो पूर्वकृत संकेत के अनुरूप निरन्तर अवस्था में उत्पन्न होनेवाले रूपादि को देख कर ही उत्पन्न होती है । यह वास्तविक कहा गया है कि न तो क्षणिक पदार्थ में गति सम्भव है, न नित्य में ।
लोक में जो सर्वविदित गतिव्यवहार है उसका उपपादन कैसे करेंगे ? इस प्रकार, देखिये - नये नये निरन्तर समीपवर्त्ती गगनप्रदेशों में नियत दिशा के अभिमुख जब क्षण क्षण में उत्पन्न होने वाले पदार्थों को देखते हैं तब 'यह वही जा रहा है' ऐसी भ्रमणा होती है - उसी से गतिव्यवहार होता है । जैसे प्रदीपादि में गतिव्यवहार होता है । जब दीपपात्र को झुलाया जाता है तब जानते तो सब है कि दीपज्योत क्षण क्षण में नयी नयी उत्पन्न होती है, फिर भी निरन्तरोत्पत्ति के कारण दीपज्योत में भी 'यह वही दीप झुल रहा है' ऐसी भ्रमणा और व्यवहार होता है । वहाँ 'एक ही प्रदीपादि देशान्तर में संचार करता है' ऐसा तो आप भी नहीं मान सकते, क्योंकि आप तो मानते हैं कि प्रदीपादि छ: क्षण मात्र जीवित होते हैं । आपकी यह प्रक्रिया है याद कीजिये - प्रथम क्षण में अपने समवायि कारणों का सम्बन्ध होता है, दूसरा क्षण उसकी सामान्याभिव्यक्ति का होता है, तीसरे क्षण में उसमें विभागजनक क्रिया होती है, चौथे क्षण में समवायि अवयवों में विभाग जन्म लेता है, पाँचवे क्षण में अपने आरम्भक अवयवों के संयोग का नाश होता है, छट्ठे क्षण में अवयवी द्रव्य का विनाश होता है। ऐसी प्रक्रिया जानते हुए भी वहाँ वही ' प्रदीपादि झुल रहा है' ऐसा जो व्यवहारप्रवर्त्तन होता है वह निरन्तरोत्पत्ति से अन्यथासिद्ध है, अतः सिर्फ व्यवहार के बल से द्रव्य से पृथक् कर्म का अंगीकार प्रशस्त नहीं है यह निष्कर्ष है ।
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* सामान्यपदार्थ का निरसन
पर और अपर दोनों प्रकार के सामान्य को द्रव्य, गुण या कर्म ये तीन पदार्थों में आश्रित माना गया
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