SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सर्वदाऽविशिष्टत्वात् क्रियासमावेशो युक्तः । तथाहि – यत् सर्वदाऽविशिष्टं न तस्य क्रियासम्भवो यथाऽऽकाशस्य, अविशिष्टं च वस्तु अक्षणिकाभिमतं सर्वदेति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रसङ्गः । न चाऽक्षणिकस्याऽविशिष्टत्वेऽपि प्रकृत्यैव गन्तृरूपत्वात् क्रियावत्त्वं भविष्यतीत्यनैकान्तिकता हेतोराशंकनीया, यतो यदि प्रकृत्यैवोत्क्षेपणादिक्रियायोगिनो भावा भवेयुस्तदा नैषां कदाचिनिश्चलता भवेत् सर्वदा एकरूपत्वात् । अथागन्तुरूपताऽप्येषामङ्गीक्रियते तथासति सर्वदैकरूपत्वादाकाशवदगन्तारो भवेयुः। एवं च गत्यवस्थायामप्यचलत्वमेषां प्रसक्तमपरित्यक्तागतिरूपत्वाद् निश्चलावस्थावत् । अथोभयरूपत्वादेषामयमदोषः, नैवम् गन्तृत्वाऽगन्तृत्वविरुद्धधर्माध्यासादेकत्वव्याहतिप्रसक्तेः क्षणिकतैवापद्येत भिन्नस्वभावयोरचलानिलयोरिवात्यन्तभेदात् ।। __ अनुमानविरोधवद् अध्यक्षविरोधोऽपि प्रतिज्ञायाः । तथाहि – 'यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सद् नोपलभ्यते न तत् प्रेक्षावता 'सत्' इति व्यवहर्त्तव्यम् यथा कचित् प्रदेशविशेषेऽनुपलभ्यमानो घटः । नोपलभ्यते च विशिष्टरूपादिव्यतिरेकेण कर्मे ति स्वभावानुपलब्धिः । तथा, तथादेशान्तरावष्टम्भोउस में जैसे क्रिया का समावेश नहीं होता वैसे ही सर्वकाल में एकस्वरूप अक्षणिक पदार्थ में भी क्रिया का समावेश अशक्य है । प्रयोग देखिये - जो सर्वकाल में अविशिष्ट यानी एक-सरीखा होता है उस में क्रियाप्रवेश सम्भव नहीं, जैसे आकाश । अक्षणिक माना गया पदार्थ भी सदा के लिये अविशिष्ट होता है । यहाँ क्रियाप्रवेश की व्यापक है भिन्नभिन्न काल में विविधता, उस का विरोधी है सर्व काल में अवैशिष्ट्य, उस की उपलब्धि यहाँ हेतु है जिस से यहाँ प्रसंगापादन किया गया है । * गतिशीलता की शंका का निवारण * यदि यह शंका की जाय - भाव अक्षणिक यानी सर्वकाल में अविशिष्ट भले रहे, उपरांत स्वभाव ही उस का गतिशील होने से उस में क्रियावत्ता भी रहेगी, अतः आप के प्रयोग में हेतु साध्यद्रोही हो सकता है । - तो यह शंका अयोग्य है क्योंकि यदि पदार्थ स्वभावतः उत्क्षेपणादिक्रियाधारक ही रहेगा तो उन में कभी भी स्थैर्य का उपलम्भ ही नहीं होगा क्योंकि सर्वकाल में एकरूप होने से स्वभावतः सर्वदा गतिशील ही रहेगा। यदि उन में अगतिशीलता को भी मानेंगे तो सर्वदा स्वभावतः एकरूप यानी अगतिशील होने से आकाश की तरह अगामुक यानी स्थिर ही बने रहेंगे और ऐसा मानने पर गतिअवस्था में भी उन पदार्थों में अचलता को मंजूरी देनी पडेगी, क्योंकि निश्चलावस्था में जैसे अगतिस्वरूप का त्याग नहीं होता वैसे यहाँ गतिअवस्था में भी अगतिस्वरूप का त्याग नहीं है । यदि गति-अगति उभयरूपता का स्वीकार करने जायेंगे तो दोषमुक्त नहीं हो सकेंगे, क्योंकि गतिकारकत्व और अगतिकारकत्व ये दो विरुद्ध धर्म हैं अतः उन दोनों का प्रवेश होने पर वस्तु का एकत्व भाग जायेगा और भिन्न भिन्न स्वभाव के कारण पहाड और पवन की तरह उन स्थिर और गतिशील पदार्थों में भेद हो जाने से क्षणिकत्व का आगमन हो जायेगा । * पृथक् क्रिया के अंगीकार में प्रत्यक्षविरोध * कर्मवादियों की प्रतिज्ञा में अनुमान का विरोध है, इसी तरह प्रत्यक्षविरोध भी है । कैसे यह देखिये - यहाँ स्वभावानुपलब्धि हेतु से प्रत्यक्षविरोध दिखाया जा रहा है - जो उपलब्धिलक्षण प्राप्त होने पर भी उपलब्ध नहीं होता वह 'सत्' रूप से व्यवहारयोग्य नहीं होता जैसे किसी एक स्थान में न उपलब्ध होने वाला घडा । द्रव्य जब दृष्टिगोचर होता है तब रूप-संस्थानादि से पृथक् कर्म का उपलम्भ नहीं होता अत: वह भी 'सत्' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy