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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
विभागकारणं तद् गमनम् । चतुष्प्रकारमपि उत्क्षेपणादिकं कर्म नियतदिग्देशसंयोग-विभागकारणम् । अनियतदिग्भिस्तु भावैः संयोग-विभागकारणं तु कर्म गमनम् तेन भ्रमण - स्पन्दन - रेचनादीनामपि गमन एवान्तर्भावात् पञ्चैव कर्माणि । मूर्त्तिमद्द्रव्यसंयोगविभागकार्योपलम्भात् पञ्चविधस्यापि कर्मणोऽनुमानात् प्रसिद्धिः । तथा, अध्यक्षतोऽपि उत्क्षेपणादेः कर्मणः प्रतिपत्तिः, इन्द्रियव्यापारेण 'गच्छति' इत्यादि - प्रतिपत्त्युत्पत्तेः । तथा च 'संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसमवायाच्चाक्षुषाणि' (वै० सू० ४-१-११) इति सूत्रमप्युपपन्नम् ।
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अत्र संयोग-विभागलक्षणं तावत् तत्कार्यमसिद्धम् तयोः पूर्वमेव निषेधात् । न च नैरन्तर्योत्पादादिमात्रलक्षणौ तत्कार्यतया संयोग-विभागौ हेतुत्वेन वाच्यौ, तथाविधेन कर्मणा तयोः क्वचिदन्वयाऽसिद्धेरनैकान्तिकताप्रसक्तेः । साध्यविपर्ययेण च हेतोर्व्याप्तेर्विरुद्धताऽपि वक्तव्या । सिद्धसाध्यता च कारणमात्राsस्तित्वे साध्ये तथाविधसंयोग-विभागकारणत्वे वाय्वादेरभीष्टेः । कारणविशेषाऽस्तित्वे
प्रसारण :- आकुञ्चन से उलटा प्रसारण है जो वक्र को ऋजु बना देता है । मूलदेश से अंगुली- अग्र IT विभाग और अन्य आकाशदेश से संयोग पैदा कर के ऋजुता लाने वाला कर्म प्रसारण है ।
गमन : अनियत दिशा के गगन विभाग के साथ द्रव्य का संयोग विभाग करानेवाला कर्म गमन है । उत्क्षेपणादि प्रथम चार कर्म द्रव्य को नियत दिशा में आकाशदेश के साथ संयुक्त विभक्त करता है, जब कि गमन कर्म किसी भी अनिश्चित दिशा के आकाशदेश के साथ द्रव्यों का संयोग - विभाग कराता है । इस का तात्पर्य यह है कि अनियतदेशसंयोग-विभागजनक भ्रमण, स्पन्दन, रेचनादि क्रियाओं का भी गमनकर्म में ही समावेश कर लिया गया है अतः पाँच से अधिक संख्या कर्मों की नहीं होती । कार्य से कारण का अनुमान होता है। अतः भिन्न भिन्न देश या द्रव्य के साथ मूर्त्तद्रव्यों के संयोग - विभागरूप कार्य को देख कर सरलता से पाँचों क्रिया का अनुमान किया जा सकता है । तथा, इन्द्रियव्यापार से स्पष्ट दिखता है कि 'यह जा रहा है – गति कर रहा है' इस प्रकार की प्रतीति से गमनादि कर्मों की प्रत्यक्ष उपलब्धि सिद्धिप्राप्त है । इस प्रकार पहले जो सूत्र में कहा गया है कि 'संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग-विभाग, परत्वापरत्व और क्रिया ये सब रूपिद्रव्य के समवाय- सन्निकर्ष से चाक्षुष प्रत्यक्ष होते हैं- (वै० सू० ४-१-११) यह सूत्र भी संगत हो जाता है ।
* क्रियासाधक अनुमानों में सदोषता *
वैशेषिकों के प्रतिवाद में यह कहना उचित है कि कार्य से कारण के अनुमान की बात ठीक है, लेकिन संयोग-विभाग कार्य का पहले निरसन हो गया है अतः कार्य ही असिद्ध है तो कारणभूत कर्म का अनुमान कैसे हो सकता है ? यदि दो द्रव्यों का निरन्तर - सान्तरभाव से उत्पाद होना इसी का नाम है संयोग-विभाग, और यही कार्यहेतु बन कर क्रिया का अनुमान करायेगा ऐसा कहा जाय तो वह गलत है, क्योंकि अनुमान के पूर्व क्रिया सर्वथा असिद्ध होने से उस के साथ तथाविध संयोग - विभाग का अन्वय ( व्याप्ति) सिद्ध न होने से विना साध्य के रह जाने वाला हेतु साध्यद्रोही होगा । सिर्फ साध्यद्रोह ही नहीं, विरुद्ध दोष भी होगा क्योंकि तथाविध संयोग विभाग रूप हेतु को क्रिया के बदले क्रिया के अभाव के साथ ही व्याप्ति बनती है, क्योंकि क्रिया असिद्ध है । यदि 'क्रिया' पदार्थ के बदले सिर्फ कारणमात्र का ही अस्तित्व सिद्ध करना चाहेंगे तो सिद्धसाधन दोष होगा, क्योंकि दो द्रव्यों के संयोग-विभाग का प्रेरक वायु-अभिघात आदि स्वरूप कारण हमें इष्ट ही हैं । यदि सिर्फ कारणमात्र नहीं किन्तु उत्क्षेपणादिस्वरूप कारणविशेष सिद्ध करना चाहेंगे तो वहाँ
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