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पञ्चमः खण्डः का० ४९
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ख्यो गुणः इति वैशिषिकैः परोक्षादृष्टस्वरूपमुपवर्णितम् । 'कर्तुः प्रिय-हित- मोक्षहेतुर्धर्मः अधर्मस्तु अप्रिय-प्रत्यवायहेतुः' [प्रशस्तपा० भा० २७२ / ८ अथवा २८० / ८ ] इति । एतच्च तत्समवायिकारणस्यात्मनो मनसः आत्म-मनः संयोगस्य च निमित्तताऽसमवायिकारणत्वेनाभ्युपगतस्य निषेधात् कारणाभावे कार्यस्याप्यभावात् सर्वमनुपपन्नम् । शब्दस्त्वाकाशगुणत्वेनाभिमतः, तस्य चाकाशगुणत्वं प्राग् निषिद्धमिति न चतुर्विंशतिरपि गुणाः प्रमाणोपपत्तिकाः ॥
उत्क्षेपणादीनि पञ्च कर्माणि । तथा च सूत्रम् ‘उत्क्षेपणमपक्षेपणमाकुञ्चनम् प्रसारणम् गमनमिति कर्माणि' [वै०सू० १-१-७] इति । तत्रोत्क्षेपणं यदूर्ध्वाधः प्रदेशाभ्यां संयोग-विभागकारणं कर्म उत्पद्यते । यथा शरीरावयवे तत्सम्बन्धे ( ?द्धे) वा मूर्त्तिमति मुशलादौ द्रव्ये ऊर्ध्वभाग्भिराकाशदेशाद्यैः संयोगकारणम् अधोदिग्भागावच्छिन्नैश्च तैर्विभागकारणं प्रयत्नादिवशात् कर्म तदुत्क्षेपणमुच्यते । एतद्विपरीतसंयोग-विभागकारणं च कर्म अपक्षेपणम् । ऋजुद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं च कर्म आकुञ्चनम् यथा ऋजुनोऽङ्गुल्यादिद्रव्यस्य येऽग्रावयवास्तेषामाकाशादिभिः स्वसंयोगिभिर्विभागे सति मूलप्रदेशैश्च संयोगे सति येन कर्मणाऽङ्गुल्यादिवयवी कुटिलः सम्पद्यते तत् कर्म प्रसारणम् । अनियतदिग्देशैर्यत् संयोगऔर अधर्म । प्रशस्तपादभाष्य में भी कहा गया है कि 'धर्म अपने कर्त्ता का प्रिय करनेवाला, हितकारी और मोक्षप्रापक होता है, अधर्म अपने कर्त्ता को अप्रियकारी और नुकसानकारक होता है ।' वास्तव में यह सब असंगत है । कैसे यह देख लीजिये पहले उसके समवायिकारण आत्मा का और निमित्त कारण मन का निषेध हो चुका है, तथा उसके असमवायिकारणरूप आत्म-मनः संयोग का भी निषेध हो चुका है । इस प्रकार समवायि, असमवायि और निमित्त, सभी कारणों का निषेध हो जाने से कार्य का भी निरसन हो जाता है । (अदृष्ट आत्मगुण नहीं किन्तु पौगलिक है यह भी पहले खंड में कह आये हैं ।)
शब्द को आकाश का गुण माना गया है, किन्तु पहले खंड में उसके गगनगुणत्व का निरसन हो चुका है । इस प्रकार चौबीस में से एक भी गुण प्रमाण की कसौटी पर खरा नहीं उतरता ।
* उत्क्षेपणादि पञ्चविध कर्म
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न्याय वैशेषिक मत में 'कर्म यानी क्रिया' तीसरा पदार्थ बताया गया है, उसके पाँच भेद हैं उत्क्षेपणादि । सूत्र में कहा है 'उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन ये पाँच कर्म हैं' (वै० सू०१-१-७)
उत्क्षेपण :- किसी एक द्रव्य का ऊर्ध्व या अधः प्रदेश के साथ संयोग या विभाग कराने वाली क्रिया । उदा० शरीर के हाथ-पैर आदि अवयवों में अथवा उन से सम्बद्ध मुशलादि मूर्त्त द्रव्य में जीव के प्रयत्न से ऊर्ध्वदिशा के आकाशप्रदेशों के साथ संयोग करानेवाली और अधोदिशा के आकाशप्रदेशों के साथ विभाग करानेवाली क्रिया उत्पन्न होती है, उसको उत्क्षेपण कर्म कहा जाता है ।
अपक्षेपण :उत्क्षेपण से उलटा समझना है, ऊर्ध्वभाग के साथ विभाग और अधोभाग के साथ संयोग कराने वाला कर्म अपक्षेपण है ।
आकुञ्चन :- द्रव्य की ऋजु अवस्था को वक्रावस्था में पलट देने वाली क्रिया को आकुञ्चन कहा गया है । उदा० अंगुली जब सीधी है तब उसके जो अग्रिम अवयव हैं उसका जिस आकाश-देश के साथ संयोग है उस आकाश देश के साथ विभाग को पैदा करके जो अंगुली का मूल देश है उस के साथ संयोग करानेवाला जो कर्म है वह आकुञ्चन है, उससे ऋजु अंगुली वक्र हो जाती है ।
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