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________________ १३७ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ नित्यभावः इति पर्यनुयोगस्य सर्वत्र तुल्यत्वात् । क्षणिकवादिनस्तु नायं दोषः पूर्वपूर्वहेतुप्रतिबद्धत्वात् तदुत्तरोत्तरकार्याणां युगपत् कारणवैकल्येन सर्वेषामसन्निधानात्, अतः परेषामङ्करादिकार्यहेतुत्वं बीजादीनां (न ?) सर्वदा प्रसज्यत इति नार्थान्तरसंयोगसापेक्षास्त इति व्यवस्थितम् । संयोगसद्भावबाधकं च प्रमाणं प्रत्यक्षवद् अनुमानमपि विद्यत एव । तथाहि – या संयुक्ताकारा बुद्धिः सा भवत्परिकल्पितसंयोगानास्पदवस्तुविशेषमात्रप्रभवा, 'संयुक्तौ प्रासादौ' इति बुद्धिवत्, संयुक्ताकारा च 'चैत्रः कुण्डली' इत्यादिबुद्धिः, इति स्वभावहेतुः । यद्वा याऽनेकवस्तुसंनिपाते सति समुत्पद्यते सा भवत्परिकल्पितसंयोगविकलानेकवस्तुविशेषमात्रभाविनी यथा विरलावस्थितानेकतन्तुविषया बुद्धिः, तथा च विमत्यधिकरणभावापन्ना संयुक्तबुद्धिः - इति स्वभावहेतुः । एतदेव प्रयोगद्वयं विभागमानते हैं, एवं उन को एकस्वभावयुक्त ही मानते हैं क्योंकि स्वभावभेद मानने पर क्षणिकवाद प्रसक्त होता है । इस स्थिति में अगर उन का संयोगिस्वभाव मानेंगे तो उस के नित्य संनिहित होने से संयोग भी नित्य ही होगा न कि अल्पकालीन । तब उस के विना कार्य की अनुत्पत्ति दिखाना भी ठीक नहीं है । यदि कहें कि - 'क्षिति-बीजादि को संयोग निपजाने के लिये क्रिया की अपेक्षा होती है, क्रिया कदाचित् होती है अतः तजन्य संयोग कादाचित्क होता है' - तो यह भी ठीक नहीं है, जो संयोग के लिये प्रश्न था वही अब बीजादि की क्रिया के लिये होगा, बीजादि स्थायि और एकस्वभाव यानी सक्रियस्वभाव वाले होने पर क्रिया कैसे कादाचित्क हो सकती है ? उस का भी उत्पाद सतत क्यों चालु नहीं रहता ? इस प्रश्न का निराकरण शक्य नहीं है । ‘क्रिया के कारण सतत न होने से सतत क्रियोत्पत्ति नहीं होती' ऐसा उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि नित्यवादी जब कारणों को नित्य मानते हैं तब क्रियोत्पत्ति का भी नित्यभाव क्यों नहीं होता ? यह प्रश्न तदवस्थ ही रहेगा । क्षणिकवादी को तो ऐसी कोई समस्या ही नहीं है, क्योंकि उत्तर-उत्तरक्षण के कार्यों का जन्म पूर्वपूर्व कारणक्षण परम्परा पर निर्भर होता है, एक साथ सर्व कारणों का संमिलन नहीं होता, अतः कारणवैकल्य होने पर सर्व कार्यों का एक साथ आगमन भी नहीं होता । यही कारण है कि नित्यवादी के मत में बीजादि में सर्वकाल अंकुरादिकार्यकारित्व का आपादन प्रसक्त हो सकता है, क्षणिकवाद में वह नहीं होता, अत: सिद्ध हो जाता है कि बीजादि को अर्थान्तरभूत संयोग की अपेक्षा नहीं होती । * संयोगसिद्धि में बाधक प्रमाण * प्रत्यक्ष की तरह अनुमान भी संयोग की सत्ता में बाधक प्रमाण मौजूद है । देख लिजिये - जो ‘संयुक्त' आकार की बुद्धि होती है वह प्रतिवादिकल्पित संयोग के अनाश्रयभूत वस्तुविशेष मात्र से उत्पन्न होती है, जैसे 'ये दो महल संयुक्त है' ऐसी बुद्धि । 'चैत्र सकुण्डल है' यह बुद्धि भी 'संयुक्त' आकारावगाही होती है । यह स्वभावहेतुक अनुमान है । महल तो गुणात्मक पदार्थ है, उस में संयोगात्मक गुण के न रहते हुए भी ‘संयुक्त' बुद्धि होती है, वैसे अन्यत्र भी विना संयोग के ही 'संयुक्त' बुद्धि हो सकती है, यहाँ संयुक्ताकारबुद्धिस्वभाव अथवा यह दूसरा स्वभावहेतुक अनुमानप्रयोग है - जो बुद्धि अनेक वस्तुओं के मिलने पर उत्पन्न होती है वह प्रतिवादीकल्पित संयोग के विना ही सिर्फ अनेक वस्तुविशेष मात्रमूलक होती है जैसे छुटे छुटे बिखरे हुए (यानी अल्प-अतिअल्प अन्तर रख कर बिखरे हुए) तन्तु को विषय करनेवाली बुद्धि, विवादास्पद 'चैत्र सकुण्डल है' यह बुद्धि भी अनेक वस्तु के मिलने पर होती है अतः वह भी विना संयोग के, अनेक वस्तुविशेष मात्रमूलक हो सकती है । यहाँ छुटे छुटे बिखरे हुए तन्तुओं को देख कर भी 'संयुक्त' या 'मिलित' ऐसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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