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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
प्रतिषेधेऽपि वाच्यम् । तथाहि – मेषादिषु विभक्तबुद्धिः विभागरहितपदार्थमात्रनिबन्धना विभक्तबुद्धित्वाद् अनेकपदार्थाऽसन्निधानायत्तोदयत्वाद् वा, देवदत्त - यज्ञदत्तगृहविभागबुद्धिवत् हिमवत्- विन्ध्यविभागबुद्धिवद् वा । साध्यविपर्यये हेतोर्बाधकं प्रमाणम् एकस्यानेकवृत्त्यनुपपत्तिः, इति न संयोग - विभागगु
णद्वयसद्भावः ।
'इदं परम् इदमपरम्' इति यतोऽभिधानप्रत्ययौ भवतस्तद्यथाक्रमं परत्वमपरत्वञ्च सिद्धम् । प्रयोगश्चात्र योऽयं 'परम् - अपरम्' इति च प्रत्ययः स घटादिव्यतिरिक्तार्थान्तरनिबन्धनः, तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्, सुखादिप्रत्ययवत् । तथाहि – एकस्यां दिशि स्थितयोः 'परम्' 'अपरम्' इति च प्रत्ययोत्पत्तेर्न तावदयं दिग्निबन्धनः, एकस्मिन्नपि वर्त्तमानकाले वर्त्तमानयोर्युव - स्थविरयोरनियतदिग्देशसंयुक्तयोः ‘परम्' 'अपरम्' इति च प्रत्ययोत्पत्तेर्नाप्ययं कालनिबन्धनः तदविशेषेऽपि प्रत्ययविशेषात् । न चान्यदस्य निबन्धनमभिधातुं शक्यम् तस्माद् यन्निबन्धनोऽयं प्रत्ययः तत् परत्वम् अपरत्वञ्चाभ्युबुद्धि होती है, संयोग तो यहाँ निमित्त नहीं है किन्तु परस्पर निकटवर्त्ती अनेक वस्तु ही उस में निमित्त हैं । वैसे ही अव्यवहित चैत्र और कुण्डल को देख कर संयोगनिरपेक्ष ' चैत्र सकुण्डल है' ऐसी बुद्धि हो सकती है । * विभागसिद्धि में बाधक प्रमाण
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संयोग की तरह विभाग के लिये भी वैसे ही दो अनुमान प्रयोगों का बाधक प्रमाण के रूप में विन्यास हो सकता है । जैसे देखिये भेडों आदि में ‘विभक्त' ऐसी बुद्धि विभागनिरपेक्ष वस्तुमात्रमूलक होती है, क्योंकि वह 'विभक्त' बुद्धि है । अथवा, क्योंकि वह अनेक पदार्थों के अमिलन के आधार पर उदित होती है। उदा० अमिलित देवदत्तगृह और यज्ञदत्तगृह में होने वाली विभागबुद्धि अथवा हिमाचल - विन्ध्याचल में होने वाली विभागबुद्धि। गृह तो गुणात्मक होने से उन में विभागात्मक गुण रह नहीं सकता, अतः वहाँ विभाग निरपेक्ष अमिलित गृहद्वय को ही विभक्त बुद्धि का निमित्त मानना होगा । पहाड भी स्वतन्त्र अवयवी नहीं है किन्तु अनेक अवयवीयों का मिलन (यानी न्यायमत में संयोग ) रूप होने से उस में भी विभाग गुण होने की सम्भावना नहीं रहती। यदि कहें कि दो भेडों में विभक्तबुद्धि विभागगुणमूलक ही माने तो क्या बाधक है तो इस विपरीतशंका में बाधक यह है कि एक विभाग गुण को अनेक में आश्रित मानना पडेगा, किन्तु एक की अनेक में वृत्ति घटित नहीं होती यह बाधक पहले ही अवयविनिरसनप्रकरण में कह आये हैं । निष्कर्ष संयोग और विभाग ये कोई स्वतन्त्र सत्ताधारी गुण नहीं है ।
* परत्व- अपरत्व के साधन का प्रयास
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न्याय-वैशेषिकवादी परत्व - अपरत्व स्वतन्त्र गुणयुगल की सिद्धि के लिये प्रयास करते हैं ‘यह पर है और यह अपर है' ऐसी बुद्धि होती है, अर्थात् यह इस सीमा पर है और वह उस सीमा पर है अथवा 'यह पहला है और वह बाद में हुआ' इस प्रकार प्रतीति भी होती है और शब्दव्यवहार भी किया जाता है, इस से क्रमशः परत्व और अपरत्व ये दो गुण सिद्ध होते हैं । प्रयोग इस प्रकार है 'यह पर और वह अपर' इस ढंग की प्रतीति घटादि से अतिरिक्त अर्थान्तरभूत वस्तु के निमित्त से होती है, क्योंकि घटादि की प्रतीति से यह प्रतीति विलक्षण होती है, जैसे सुखादि की प्रतीति घटादि से अतिरिक्त सुखादि के निमित्त से होती है । स्पष्टीकरण :एक ही दिशा में रहे हुए दो पदार्थ को देख कर " यह पर है वह अपर है' ऐसा भान होता है, दिशाभेद न होने पर भी होता है अतः वह दिशामूलक नहीं हो सकता । तथा, एक ही वर्त्तमानकाल में रहे हुए अनियत दिशाभाग में रहे हुए युवान और बुजुर्ग पुरुष को देख कर 'यह पर है वह अपर है' ऐसा भान होता है,
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