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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ दावेकत्वादेर्गुणस्याऽसम्भवात्, काष्ठादिषु च प्रासादाश्रयेषु विवक्षितदीर्घाद्ययोगात् । बह्वीषु च प्रासादमालासु 'माला-माला' इत्यनुगतप्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात् जातावपरजातेरनुपपत्तेः । न च तदाश्रयजातिनिबन्धन औपचारिकोऽयं प्रत्ययोऽस्खलद्वृत्तित्वात् । न हि मुख्यप्रत्ययाविशिष्टो गौणो युक्तोऽतिप्रसंगात् । अत एव मालादिषु महत्त्वादिप्रत्ययोऽपि नौपचारिकः । उक्तं च - (प्र०वा. २-१५७)
मालादौ च महत्त्वादिरिष्टो यश्चौपचारिकः । मुख्याऽविशिष्टविज्ञानग्राह्यत्वान्नौपचारिकः ॥ इति । तन्न परिमाणं रूपादिषु पृथग् गुण इति स्थितम् ।
संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशात् 'अत्रेदं पृथक्' इत्यपोध्रियते तदपोद्धारव्यवहारकारणं पृथक्त्वं नाम गुण है । तीनों ही गुणात्मक होने से एक-दूसरे में नहीं रह सकते क्योंकि गुण में कोई गुणों का सम्भव नहीं होता । अतः एकार्थसमवाय से ‘यह विशाल प्रासादश्रेणी' ऐसा बोध भी सम्भव नहीं रहता ।
* माला न अवयवी है न जाति * यदि आप 'माला' को 'संख्या'रूप नहीं किन्तु अवयवीद्रव्यरूप मानते हैं - तो भी प्रासाद संयोगात्मक गुणरूप होने से मालारूप अवयवी द्रव्य प्रासादात्मक गुण में नहीं रह सकेगा क्योंकि अवयवी का आश्रय अवयवद्रव्य ही होता है, गुण नहीं । यदि आप माला को जातिस्वभाव मानेंगे तो यद्यपि वह संयोगात्मक प्रासाद में रह सकती है, किन्तु जाति प्रत्येक व्यक्ति में व्याप्त हो कर रहती है इसलिये एक प्रासाद को देख कर भी 'प्रासादमाला' ऐसा बोध होने की आपत्ति हो सकती है । उपरांत, जातिपक्ष में 'यह एक प्रासादमाला दीर्घ/ह्रस्व है' ऐसे बोध की असंगति तो तदवस्थ ही रह जायेगी । कारण, जातिस्वरूप माला के आश्रयभूत संयोगात्मक प्रासादादि में एकत्वादि गुण का अभाव है और संयोगात्मक प्रासाद के आश्रयभूत काष्ठादि द्रव्यों में वह दीर्घ-ह्रस्वता नहीं है जो प्रासादमाला में दृष्टिगोचर होती है। दूसरी बात यह है कि चार दिशाओं मे अलग अलग प्रासादमालाओं को देख कर 'माला-माला' ऐसा जो अनुगत बोध होता है वह संगत नहीं होगा क्योंकि जातिस्वरूप माला में अन्य किसी जाति का सम्भव नहीं होता । 'माला-माला' यह अनुगतबोध कभी भी बाधकप्रतीति से स्खलित नहीं होता, अतः जातिस्वरूप माला के आश्रयभूत प्रासादादि में रहे हुए जाति के प्रभाव से औपचारिक तौर पर 'माला-माला' बोध होता है ऐसा कह नहीं सकते । एक ओर मुख्य-जातिमूलक अनुगत बोध, और दूसरी
ओर उपचार से अनुगत बोध, ये दोनों तुल्य नहीं हो सकते, अन्यथा यह अतिप्रसंग होगा कि मुख्य गोविषयक बोध और गौण गो-वाहक में गोविषयक बोध दोनों ही तुल्य हो जायेंगे । मालादि में जातिस्वरूप होने के कारण जैसे औपचारिक अनुगतबोध को मानना असंगत है वैसे ही महत्त्वादि की औपचारिक प्रतीति को मानना भी असंगत है । प्रमाणवार्त्तिक में कहा गया है - ___“मालादि में महत्त्वादि (के बोध) को औपचारिक मानने को कहा जाय, लेकिन महत्त्वादि के मुख्य बोध की तरह माला में भी समान बोध होता है अतः औपचारिक नहीं कह सकते ।" निष्कर्ष :- रूपादि से अलग, स्वतन्त्र परिमाणरूप गुण असत् है ।
* पृथक्त्व-गुण के साधक-बाधक * पृथक्त्व :- द्रव्य को अन्योन्य संयुक्त है ऐसा देखने के बाद भी 'यह इस से है तो अलग' इस प्रकार * उद्धृतोऽयं श्लोकः तत्त्वसंग्रह-का० ६५०-पंजिकायाम् ।
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