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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गुणः' इति काणादाः 'घटादिभ्योऽर्थान्तरम्, तत्प्रत्ययविलक्षणज्ञानग्राह्यत्वात्, सुखादिवत्' इति व्यवस्थिताः। अत्र तावद् हेतोरसिद्धता, परस्परस्वरूपव्यावृत्तरूपादिव्यतिरेकेणार्थान्तरभूतस्य पृथक्त्वगुणस्याध्यक्षेऽप्रतिभासेन घटादिविलक्षणज्ञानग्राह्यत्वस्याऽसिद्धेः । अत एवोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेनाभ्युपगतस्य तस्यानुपलम्भादसत्त्वम् । न च 'पृथक्' इति विकल्पप्रत्ययावसेयत्वेन तस्य सत्त्वम्, सजातीयविजातीयव्यावृत्तरूपाद्यनुभवनिबन्धनत्वात् तत्प्रत्ययस्य । व्यावृत्तता च भावानां स्व-स्वभावव्यवस्थितेः, अन्यथा स्वत एवाव्यावृत्तरूपाणां पृथक्त्वादिवशात् तेषां पृथग्रूपताऽसिद्धेः, पृथक्त्वादेर्भिन्नाऽभिन्नपृथग्रूपभावकरणेऽकिंचित्करत्वात् – भेदपक्षे सम्बन्धासिद्धेः, अभेदपक्षे तु पृथग्रूपस्य भावस्यैवोत्पत्तेरान्तरभूतपृथक्त्वगुणकल्पनावैयर्थ्यात् तत एव 'पृथक्' व्यवहारसिद्धेर्हतोरनैकान्तिकत्वम् ।
किञ्च, यथा परस्परव्यावृत्तात्मतया सुख-दुःखादिगुणेषु 'पृथक्' इति प्रत्यय-विषयता पृथक्त्वगुणाभावेऽपि गुणेषु गुणाऽसम्भवात् तथा घटादिष्वपि भविष्यतीति हेतोरनैकान्तिकता परिस्फुटैव । जुदाई महसूस हो जाती है जिस को 'अपोद्धार' कहा जाता है । इस अपोद्धारव्यवहार के निमित्तरूप में 'पृथक्त्व' संज्ञक गुण की कल्पना कणाद ऋषि के शिष्यों ने की है । वे इस प्रकार प्रयोग दिखलाते हैं - 'पृथक्त्व घटादि से अर्थान्तर है क्योंकि वह ऐसे ज्ञान से गृहीत होता है जो घटादिप्रतीति से विलक्षण होता है । उदा० सुखादि, जिस का ज्ञान घटादिप्रतीति से विलक्षण होता है और घटादि से सुखादि भिन्न ही होता है।' अन्य वादी कहते हैं कि इस प्रयोग में हेतु असिद्ध है, क्योंकि घटादि को देखने पर अन्योन्यव्यावृत्त रूपादि का भान होता है लेकिन उन से अतिरिक्त कोई 'पृथक्त्व' गुण प्रत्यक्ष में भासित नहीं होता, अतः जब स्वतन्त्र ग्राह्य ही नहीं है तो विलक्षणज्ञानग्राह्यत्वरूप हेत ही कैसे सिद्ध होगा ?! आप के मत में तो पथक्त्व स्वतन्त्र उपलब्धिलक्षणप्राप्त गण है. किन्त फिर भी प्रत्यक्ष में वह किसी को रूपादि से अतिरिक्त स्वतन्त्र उपलब्ध नहीं होता, अतः वह असत् सिद्ध होता है । 'यह इस से पृथक् है' ऐसी काल्पनिक प्रतीति में भासित होने के कारण पृथक्त्व की सत्ता मान लेना ठीक नहीं है, क्योंकि सजातीय और विजातीय पदार्थों से व्यावृत्त रूपादि की अनुभूति ही 'यह पृथक् है' इस पृथक्त्वानुभव का बीज है । रूपादि को सजातीय-विजातीय पदार्थों से अपने आप को अलग करने के लिये किसी पृथक्त्वगुण की जरूर नहीं है, वह तो अपनी स्वभावव्यवस्था के बल पर ही अलग पीछाना जाता है । यदि उन्हें स्वतः व्यावृत्त न मान कर पृथक्त्वादिगुण के जरिये व्यावृत्त होने का मंजूर करेंगे तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि जो स्वतः अव्यावृत्त स्वभाव है वह अन्य के योग से भी पृथग्रूप सिद्ध नहीं हो सकता । विकल्प ऊठ सकेंगे कि पृथक्त्व भिन्न हो कर पदार्थों को अलग रखेगा या अभिन्न रह कर ? दोनों पक्ष में वह अकिंचित्कर रहेगा । यदि वह पदार्थ से भिन्न होगा तो पदार्थ के साथ उस के सम्बन्ध का मेल नहीं खायेगा । यदि पदार्थ से अभिन्न होगा तब तो फलितार्थ यह हुआ कि पदार्थ स्वयं ही पृथक्स्वरूप उत्पन्न हुआ है, अतः अर्थान्तरभूत स्वतन्त्र पृथक्त्वगुण की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि पृथक्स्वरूप पदार्थ से ही 'पृथक्' व्यवहार की उपपत्ति हो जायेगी । इस प्रकार अर्थान्तरभूत पृथक्त्वसाध्य असिद्ध हो जाने पर कोई भी हेतु प्रयुक्त किया जाय, वह साध्यद्रोही ही ठहरेगा ।
* पृथक्त्व के विना सुखादिगुणों में पृथक्पन का व्यवहार * दूसरी बात यह है कि गुणों में तो गुण का अस्तित्व सम्भव नहीं है अतः सुख-दुःखादि गुणों में पृथक्त्व गुण रह नहीं सकता, फिर भी परस्परव्यावृत्तता के आधार पर ही 'सुख से दुःख पृथक् है दुःख से सुख पृथक् है' इस प्रकार का पृथक्त्वबोध सुख-दुःख को लेकर होता है । ठीक ऐसे ही स्वतन्त्र पृथक्त्वगुण के विना घट
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