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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् महदादिप्रत्ययप्रादुर्भूतेरनुभवादनैकान्तिकश्च हेतुः । ___ न च यत्रैव प्रासादादौ समवेतो मालाख्यो गुणः तत्रैव महत्त्वादिकमपीत्येकार्थसमवायवशात् 'महती प्रासादमाला' इति प्रत्ययोत्पत्ते नैकान्तिकत्वम्, स्वसमयविरोधात् । तथाहि - न प्रासादो भवद्भिरवयविद्रव्यमभ्युपगम्यते, विजातीयानां द्रव्यानारम्भात्, किं तर्हि ? संयोगात्मको गुणः । न च गुणः परिमाणवान् 'निर्गुणा गुणाः' ( ) इति वचनात् । ततो मालाख्यस्य गुणस्य प्रासादादिध्वभावात् 'प्रासादमाला' इत्ययमेव प्रत्ययस्तावदयुक्तः - दूरत एव ‘सा महती ह्रस्वा वा' इत्यादिप्रत्ययव्यपदेशसम्भवः । मालायाः संख्यात्वेन प्रासादादीनां च संयोगत्वेन महत्त्वादेश्च परिमाणत्वेन परैरभ्युपगमात् त्रयाणामपि गुणत्वाद् गुणेषु च गुणाऽसम्भवात् 'महती प्रासादमाला' इति नैकार्थसमवायात् प्रत्ययोत्पत्तिः । अथापि अवयविस्वभावा माला इष्यते; तथापि द्रव्यस्य द्रव्याश्रयत्वान्न मालायाः संयोगस्वरूपप्रासादाश्रयत्वं युक्तम् । अथ माला जातिस्वभावाऽभ्युपगम्यते; तथापि जातेः प्रत्याश्रयं परिसमाप्तत्वात् एकस्मिन्नपि प्रासादे 'माला' इति प्रत्ययोत्पत्तिर्भवेत् । 'एका प्रासादमाला महती दीर्घा ह्रस्वा वा' इत्यादिप्रत्ययानुपपत्तिस्तदवस्थैव स्यात् मालायां तदाश्रये च प्रासादाव्यक्त होने पर सम्पूर्ण परिमाण अभिव्यक्त हो जाने की विपदा होगी और अणु-अणु में भिन्न भिन्न परिमाण मानने पर महत् परिमाण का विलोप हो जाने का दोष होगा - इस प्रकार रूपादि निषेध की तरह परिमाण का भी निषेध
षेध समझ लेना । दूसरी बात यह है कि प्रासादमाला आदि में आप का माना हुआ महत् परिमाण नहीं होता, क्योंकि आप प्रासादमाला को एक अवयवी नहीं स्वीकारते, फिर भी 'यह प्रासादश्रेणि विशाल है' ऐसी अस्खलित प्रतीति अनुभूत होती ही है । यहाँ आप के मतानुसार रूपादिव्यतिरिक्त परिमाण नहीं है और विलक्षणबुद्धिग्राह्यत्व हेतु है अतः हेतु साध्यद्रोही ठहरता है ।
* 'महती प्रासादमाला' प्रतीति की छानबीन * ___ परिमाणवादी :- जिस प्रासादपरम्परा में 'माला' (श्रेणी)संज्ञक गुण (यानी भाव) समवेत है उस प्रासादादि में समवाय से महत्त्वादि भी रहता है, अतः एकार्थसमवाय से यहाँ 'विशाल प्रासादश्रेणी' ऐसी प्रतीति होना सहज है, विलक्षणबुद्धिग्राह्यत्व हेतु है और यहाँ रूपादि से अतिरिक्त महत्त्वपरिमाण भी एकार्थसमवायसम्बन्ध से है अतः हेतु साध्यद्रोही नहीं होगा ।
अभेदवादी :- यह कथन गलत है । कारण इस में परिमाणवादी को स्वसिद्धान्तविरोध प्राप्त होगा । कैसे यह देखिये - आप के मत में प्रासाद तो विजातीय काष्ठ-लोह-पत्थरादि द्रव्यों से निर्मित होने के कारण कोई स्वतन्त्र अवयवीद्रव्य ही नहीं है । आप के मत में कभी विजातीय द्रव्यों के मिलने से नये द्रव्यों की उत्पत्ति नहीं मानी जाती । तब प्रासाद क्या है ? तो न्याय-वैशेषिक परिमाणवादी के मत में वह सिर्फ विजातीय द्रव्यों का 'संयोग'संज्ञक गुण ही है । 'गुण निर्गुण होते हैं' इस उक्ति के अनुसार संयोगगुणात्मक प्रासाद में परिमाण गुण रह नहीं सकता । तात्पर्य, प्रासादादि में 'माला' संज्ञक गुण जैसी कोई चीज न होने से, 'प्रासादमाला' यह प्रतीति ही संगत नहीं हो सकती । जब ‘प्रासादमाला' ऐसा बोध भी असम्भव है तो वह विशाल अथवा ह्रस्व है' ऐसा बोध अथवा ऐसा व्यवहार तो सुतरां असम्भव हो जाता है । स्पष्टता यह है कि परिमाणवादी के मत में 'माला' यह संख्यात्मक गुण है, प्रासादादि संयोगात्मक गुण है और परिमाण भी
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