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________________ १२७ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ ___अत्र यदि 'रूपादिविषयेन्द्रियबुद्धिविलक्षणबुद्धिग्राह्यत्वात्' इति हेत्वर्थस्तदा हेतुरसिद्धस्तथाव्यवस्थितरूपादिव्यतिरेकेण महदादिपरिमाणस्याध्यक्षप्रत्ययग्राह्यत्वेनाऽसंवेदनात् । अथ 'अणु-महत्' इत्याकारतत्प्रत्ययविलक्षणकल्पनाबुद्धिग्राह्यत्वादिति हेतुस्तदा विपर्यये बाधकप्रमाणाभावादनैकान्तिकः । न ह्यस्याः किश्चिदपि परमार्थतो ग्राह्यमस्ति कल्पनाबुद्धित्वात् । एकदिङ्मुखादिप्रवृत्तेषु विशिष्टरूपादिषूपलब्धेषु तद्विलक्षणरूपादिभेदप्रकाशनाय समयवशात् ‘महत्' इत्यादि अध्यवस्यन्ती बुद्धिः प्रवर्त्तते इति नातो वस्तुव्यवस्था । न च रूपादिव्यतिरिक्तं ग्राह्यमप्यस्या अस्तीति असिद्धता हेतोः । प्रत्यक्षबाधा च प्रतिज्ञायाः, अध्यक्षत्वेनाभ्युपगतस्य महदादे रूपादिव्यतिरेकेणानुपलब्धेः । ततो दृष्टे स्पृष्टे वैकदिङ्मुखप्रवृत्ते रूपादौ भूयसि अतद्रूपपरावृत्ते 'दीर्घम्' इति व्यवहारः प्रवर्त्तते, परिमाणाभावेऽपि तदपेक्षया चाल्पीयसि रूपादौ समुत्पन्ने ‘ह्रस्वम्' इति व्यवहारः । एवं महदादावपि योज्यम् । एकाऽनेकविकल्पाभ्यां रूपादिवद् महदाद्यनुपपत्तेश्चाभावः । अविद्यमानेऽपि महदादौ भवत्प्रकल्पिते प्रासादमालादिषु * परिमाणसाधक अनुमान में हेतु सदोष * परिमाणसाधक प्रयोग में यदि रूपादिप्रतीतिविलक्षणप्रतीतिग्राह्यत्व हेतु का यह तात्पर्य हो कि रूपादिविषयकेन्द्रियबुद्धिविलक्षणबुद्धिग्राह्यत्व, तो एसा हेतु असिद्ध है । कारण, इन्द्रियबुद्धिग्राह्यरूपादि से अतिरिक्त महत्परिमाणादि का प्रत्यक्षप्रतीति के विषयरूप में कभी भी संवेदन नहीं होता, अतः विलक्षणप्रतीतिग्राह्यत्व हेतु असिद्ध है । यदि रूपादिप्रतीतिविलक्षण-अणु-महत्आकारकल्पनाबुद्धिग्राह्यत्व को हेतु करे तो यह हेतु अनैकान्तिकदोषग्रस्त हो जायेगा, क्योंकि ऐसा कल्पनाबुद्धिग्राह्यत्व परिमाण में रहता हो और रूपादिभेद न रहता हो तो उस में, यानी ऐसी विपरीत कल्पना में कोई बाधक नहीं है। कारण, कल्पनाबुद्धि प्रमाण नहीं होती, अतः रूपादि से अतिरिक्त न होने पर भी परिमाणग्राहककल्पनाबुद्धि रूपादिस्वलक्षणप्रतीति से विलक्षण हो सकती है । वास्तव में तो कल्पनाबुद्धि का कोई पारमार्थिक ग्राह्य विषय होता ही नहीं है, क्योंकि वह बुद्धि ही कल्पना (=वासना) प्रयुक्त है । एकदो या दो-तीन दिशामुख की ओर व्याप्त रूपादि का ग्रहण हो जाने के बाद जब कभी अनेक अर्थात् तीनचार या चार-पाँच दिशामुख की ओर व्याप्त रूपादि की प्रतीति होती है तब उत्तरकालीन गृहीत रूपादि में पूर्वकालीनगृहीतरूपादि का भेद प्रकाशित करने के लिये कल्पनाबुद्धि पूर्वगृहीत संकेतानुसार 'यह अणु है, यह महत् है' ऐसा अध्यवसाय कर लेती है, लेकिन संकेतानुसार होने वाली कल्पनाबुद्धि से कोई तथ्यभूत तत्त्वव्यवस्था नहीं होती । रूपादि से अतिरिक्त कोई इस बुद्धि का ग्राह्य नहीं है इसलिये रूपादिबुद्धि-विलक्षणबुद्धिग्राह्यत्व हेतु असिद्ध ठहरता है । तथा, उक्त प्रयोग में प्रत्यक्ष बाधा भी है, क्योंकि महत् आदि जो प्रत्यक्ष से उपलब्ध होते हैं वे रूपादि से अतिरिक्त यानी भिन्नरूप में कभी उपलब्ध नहीं होते, (रूपादि और परिमाण समानबुद्धिग्राह्य ही होते हैं) । स्वतन्त्र परिमाण न होने पर भी दीर्घ-ह्रस्व का व्यवहार इस तरह होता है कि जब एकदिगभिमुख पुष्कल रूप दिखाई देता है अथवा वह रूप अत्यधिक क्षेत्र को व्याप्त करता है और उस रूप में कोई परावर्त्तन नहीं होता तब तक उस के लिये ‘यह दीर्घ है' ऐसा व्यवहार प्रवर्त्तता है । उस से विपरीत, पूर्व की अपेक्षा अल्प रूप का व्याप होने पर 'यह ह्रस्व है' ऐसा व्यवहार होता है । इस प्रकार, अनेक दिशाभिमुख रूप का व्याप अधिक होने पर महत् का व्यवहार होता है, अल्प दिगभिमुख व्याप रहने पर अणु का आपेक्षिक व्यवहार होता है । पहले रूपादि के निरसन में जैसे ये विकल्प किये गये थे कि एक भाग में अभिव्यक्त होने पर एक निरवयवरूप सारे द्रव्य में अभिव्यक्त हो जायेगा - इत्यादि, वैसे यहाँ भी एक निरवयव परिमाण, द्रव्य के एक भाग में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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