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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् परिमाणव्यवहारकारणं परिमाणं महद् अणु दीर्घम् ह्रस्वमिति चतुर्विधम् ( ) इति परैरभ्युपगतम् । तत्र महद् द्विविधम् नित्यमनित्यं च । नित्यमाकाशकालदिगात्मसु परममहत्त्वम्, अनित्यं त्र्यणुकादिषु द्रव्येषु । अण्वपि नित्याऽनित्यभेदात् द्विविधम्, परमाणु-मनस्सु पारिमाण्डल्यलक्षणम् नित्यम् अनित्यं व्यणुक एव । कुवलाऽऽमलकबिल्वादिषु तु महत्स्वपि तत्प्रकर्षाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽणुव्यवहारः । तथाहि – यादृशं बिल्वे महत् परिमाणम् तादृशं नामलके यादृशं च तत् तत्र न तादृशं कुवल इति । ननु महद्-दीर्घयोस्त्र्यणुकादिषु वर्तमानयोः व्यणुके चाणुत्व-हस्वत्वयोः को विशेषः ? महत्सु 'दीर्घमानीयताम्' दीर्थेषु 'महदानीयताम्' इति व्यवहारभेदप्रतीतेरस्ति तयोः परस्परतो भेदः । अणुत्व-हस्वत्वयोस्तु विशेषो योगिनां तद्दर्शिनामध्यक्ष एव । महदादि च परिमाणं रूपादिभ्योऽर्थान्तरम् तत्प्रत्ययविलक्षणबुद्धिग्राह्यत्वात् सुखादिवत् । कष्ट करने के बदले 'तद्धेतोरेवास्तु किं तेन ?' इस न्याय से अपेक्षाबुद्धि को ही सीधे द्वित्वादिप्रतीति में हेतु मान लेना कितना अच्छा है !!
* महद् आदि परिमाण के चार प्रकार * __ वैशेषिक मत में परिमाणव्यवहार के निमित्तरूप में एक स्वतन्त्र ‘परिमाण' गुण माना गया है । उस के चार भेद हैं महत्, अणु, दीर्घ, ह्रस्व । महत् परिमाण के दो भेद हैं नित्य और अनित्य । आकाश, काल, दिशा और आत्मा इन में 'परममहत्त्व' संज्ञक उत्कृष्ट महत् परिमाण है जो नित्य है । त्र्यणुकादि द्रव्यों में तरतमभाववाला महत परिमाण है वह अनित्य है। अण-परिमाण के भी दो भेद हैं नित्य और अनित्य । परमाण एवं मनस् में जो अणु परिमाण है वह नित्य है और अनित्य अणु-परिमाण सिर्फ व्यणुक द्रव्यों में ही रहता है । यद्यपि कुवल, आमला, बीलुफल इत्यादि में भी 'यह बहुत छोटा है' इस तरह से अणुत्व का व्यवहार होता है किन्तु वह उपचार से होता है, कुवलादि से बडे द्रव्यों में जो प्रकर्षयुक्त महत् परिमाण है वैसा उन में नहीं है इसलिये उन को उपचार से अणु कहा जाता है । देखिये - बीलु का परिमाण जितना बड़ा है उतना आँवले का नहीं होता और आँवला जितना बड़ा है उतना बडा कुवल नहीं होता । अतः वहाँ आपेक्षिक अणु-महत् व्यवहार होता है ।
प्रश्न :- त्र्यणुकादि में वर्तमान महत् और दीर्घ परिमाण में क्या फर्क है और व्यणुक में अणुत्व और ह्रस्वत्व में क्या फर्क है ?
उत्तर :- महत्परिमाणवाले अनेक द्रव्यों में से जो दीर्घ द्रव्य को लाने के लिये, तथा दीर्घ अनेक द्रव्यों में से महत् द्रव्य को लाने के लिये आदेश दिया जाता है, इस भिन्न भिन्न आदेश व्यवहार की प्रतीति से यह फलित हो जाता है कि महत् और दीर्घ में भेद है । अणु और ह्रस्व परिमाण में यद्यपि वे अतीन्द्रिय होने से हमारे व्यवहार का विषय न होने से उन के भेद को स्पष्ट नहीं देख सकते, फिर भी उन का प्रत्यक्ष दर्शन करनेवाले योगिपुरुषों को उन में जो भेद है उस का भी प्रत्यक्ष होता है । ___परिमाण की सिद्धि के लिये यह प्रयोग है – महत् आदि परिमाण रूपादि से स्वतन्त्र इकाई है क्योंकि रूपादिप्रतीति से विलक्षण प्रतीति से गृहीत होते हैं, उदा० सुखादि । सुख-दुःखादि की प्रतीति रूपआदि की प्रतीति से विलक्षण अनुभूत होती है अतः जैसे सुखादि रूपादि से भिन्न होते हैं वैसे ही परिमाण भी विलक्षणप्रतीति के जरिये रूपादि से भिन्न गुण सिद्ध होता है ।
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