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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ रूपं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति । रसो रसनेन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकवृत्तिः । गन्धो घ्राणग्राह्यः पृथिवीवृत्तिः स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकज्वलनपवनवृत्तिः । रूपादेश्च गुणत्वे सति चक्षुर्ग्राह्यत्वादिकं लक्षणमितरव्यवच्छेदकम् । ___ एषां च मध्ये रूपस्य महत्त्वाद्युपेतद्रव्यसमवेतस्य शुक्लादेर्निरवयवस्य यदि ग्रहणमिष्यते तदा कुञ्चिकादिविवरवर्त्तिसूक्ष्मप्रदीपाद्यालोकोद्योतिताऽपवरकादिव्यवस्थितपृथुतरघटादिद्रव्यसमवेतशुक्लादिरूपाभिव्यक्तौ सकलस्यैव यावद्र्व्यवर्त्तिन उपलब्धिः स्याद्, निरवयवत्वात् । न ह्येकस्य तस्यावयवा विद्यन्ते येनैकदेशाभिव्यक्तिर्भवेत् । एवं गन्ध-रस-स्पर्शानामपि तदाधारैकदेशस्थानामभिव्यक्तौ यावद्रव्यभाविनामपलब्धिप्रसङ्गः। अथ भवत्येव सकलस्य नीलादेरुपलब्धिः । ननु तेनालोकादिना नीलादेरणुशो भेदाभ्युपगमे पृथिव्यादिपरमाणुद्रव्यवदणुपरिमाणयोगित्वेन गुणवत्त्वाद् द्रव्यताप्रसक्तिर्भवेत् । न चैवमपि गुणसंज्ञाकरणे कश्चिद् गुणोऽविवादप्रसक्तेः । न चाणुत्वेऽप्याश्रितत्वाद् गुणत्वमुपपन्नम् सदसतोराश्रयानुपपत्तेः, में 'च' शब्द से अन्य भी सात गुण सूचित किये गये हैं - गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म-अधर्म, शब्द । इस प्रकार संकलित २४ गुण होते हैं । उन में, नेत्रेन्द्रियग्राह्य गुण रूप है जो सिर्फ पृथ्वी-जल-अग्नि तीन में रहता है । रसनेन्द्रियग्राह्य गुण रस है, सिर्फ पृथ्वी और जल में वास करता है । घ्राणेन्द्रिय ग्राह्य गुण गन्ध है, सिर्फ पृथ्वी में रहता है । स्पर्शनेन्द्रियग्राह्य गुण स्पर्श है, पृथ्वी-जल-वायु-अग्नि इन चार में रहता है । गुण होते हुए चक्षु/रसना/घ्राण/त्वचा से ग्राह्य होना ये क्रमशः रूपादि के लक्षण है जो उन को 'अन्य पदार्थों से भिन्न' ज्ञात कराता है ।
* निरवयव सम्पूर्णरूप के ग्रहण की आपत्ति ** यहाँ परामर्शनीय यह है कि जब पूर्वपक्षी के मत में महत्त्वादिविशिष्टद्रव्य में समवेत निरवयव शुक्लादि रूप का चक्षु से ग्रहण माना जाता है उस वक्त ऐसी परिस्थिति हो सकती है कि कुञ्जी के छिद्र से सूक्ष्म प्रदीपालोक एक ओर कमरे में निकल रहा हो, वहाँ सामने पडे हुए विशाल घटादिद्रव्य को वे किरण स्पर्श कर रहे हों, तब उस धटादि में समवेत सम्पूर्ण, द्रव्य के एक एक भाग में जो निरवयव शुक्ल रूप है उस का सम्पूर्ण का प्रत्यक्ष होने की आपत्ति होगी क्योंकि वह निरवयव है और एक है, उस के कोई अंश ही नहीं है जिस से कि सिर्फ एक देश अग्रिमभाग के रूप की अभिव्यक्ति हो सके और पश्चाद्भागवर्ती रूप की नहीं, ऐसा कहा जा सके । इसी तरह, आधारभूतद्रव्य के एक देश में जब गन्ध-रस-स्पर्श की उपलब्धि होगी तो निरवयव होने के कारण सम्पूर्ण द्रव्यगत गन्धादि की उपलब्धि का अतिप्रसंग होगा ।
* नीलादि में द्रव्यत्व का प्रसंजन * __ यदि ऐसा कहें कि – 'जब जब नीलादि का उपलम्भ होता है सम्पूर्ण का यानी सम्पूर्णद्रव्यगत नीलादि का उपलम्भ होता है' – तो यहाँ ऐसी आपत्ति होगी, आलोकादि से सम्पूर्णद्रव्यगत नीलादि की यानी एक एक अणुगतनीलादि की उपलब्धि मानेंगे तो उस नीलादि में भी एक-एक अणु जितना भेद मानना पडेगा, इस स्थिति में पृथिवीआदि के अणुपरिमाणवाले द्रव्य की तरह उन नीलादि में भी अणुपरिमाण सम्बन्ध के कारण तथा परिमाणगुणाश्रयता के कारण द्रव्यत्व प्रसक्त हो जायेगा । द्रव्य होते हुए भी अगर आप उस की 'गुण' संज्ञा करने के अभिलाषी हैं तो उस में हमें कोई विवाद नहीं है किन्तु आप को कोई लाभ नहीं है । यदि कहें कि – 'अणु होने पर भी वह द्रव्य का आश्रित होने से नीलादि में गुणत्व घट सकता है' - तो वह
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