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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् द्रव्याभावाच्च गुणादयो विशेषपर्यन्ताः असन्त एव, तेषां तदाश्रितत्वाभ्युपगमात्, आश्रयाभावे च तदाश्रितानां तत्परतन्त्रतयाऽवस्थानाऽसम्भवात् । गुण-कर्मणां च साक्षाद् द्रव्याश्रितत्वं परैरभ्युपगतम् । तथा च सूत्रम् 'द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोग-विभागेष्वकारणम् अनपेक्ष इति गुणलक्षणम्' (वै०द. १-१-१६) । एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षं कारणमिति कर्मलक्षणम् (वै०द० ११-१७)। एकमेवैकस्मिन्नैव च द्रव्ये आश्रितमेकद्रव्यं कर्म । गुणास्तु केचिदनेकस्मिन् वर्त्तन्ते संख्या-संयोगादयः अनेके वैकदैकत्र वर्त्तन्ते रूप-रसादयः । सामान्यविशेषाश्च केचिद् द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादयो द्रव्यवृत्तय एव गुणत्व-कर्मत्वादयस्तु द्रव्यसम्बन्ध(?द्ध)गुण-कर्माश्रिताः । सत्तासामान्यं तु द्रव्य-गुण-कर्मवृत्ति । विशेषास्तु नित्यद्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते इति द्रव्यप्रतिषेधे गुणादिप्रतिषेधः प्रसिद्ध एव । समवायस्तु पञ्चपदार्थनिषेधे निषिद्ध एव, सर्वाश्रयाश्रिताभावे तस्याऽभावात् । ततो द्रव्यनिषेधादेवाशेषपदार्थनिषेधसिद्धावपि विशेषतो गुणादिप्रतिषेधः प्रदर्यते, परदर्शनस्य सर्वथाऽयुक्तताप्रदर्शनात् ।
तत्र 'रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोगविभागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छा-द्वेषौ प्रयत्नश्च गुणाः' (वै०द० १-१-६) इति सूत्रसंगृहीताः सप्तदश, 'च' शब्दसमुच्चिताः गुरुत्व-द्रवत्व-स्नेह-संस्कार-धर्माऽधर्म-शब्दाश्च सप्त गृह्यन्ते इति चतुर्विंशतिर्गुणाः । तत्र चक्षुर्लाह्यं
* द्रव्यों के निषेध से गुणादिव्यवस्था भी निषिद्ध * गुण से ले कर विशेष तक के पदार्थ सब साक्षात् या परम्परया द्रव्याश्रित ही माने गये हैं, किन्तु स्वकल्पित द्रव्य ही 'सत्' सिद्ध नहीं हो सकता, अतः गुणादि तो सुतरां असत् ठहरते हैं । कारण, आश्रित पदार्थ आश्रय को पराधीन होते हैं । आश्रय के अभाव में आश्रित का अवस्थान सम्भव ही नहीं है । परपक्षियों ने गुण और क्रिया को साक्षात द्रव्याश्रित माने हैं । वैशेषिकसूत्र में कहा गया है कि 'द्रव्याश्रित हो, स्वयं निर्गुण हो, संयोग या विभाग का कारण न हो तथा निरपेक्ष हो यह गुण का लक्षण है ।' (वै.द. १-१-१६) । तथा 'जो एक द्रव्य होता है, निर्गुण है तथा संयोग-विभाग का निरपेक्ष कारण है वह कर्म है' (वै.द. १-१-१७) । सूत्र में 'एकद्रव्य' कहा है उस का यह अर्थ है - जो एक द्रव्य में एक ही होता है और एक द्रव्य में ही रहता है । गुणों में कुछ संख्या-संयोगादि अनेकद्रव्यों में रहते हैं, एवं कुछ रूप-रसादि अनेक हो कर एक द्रव्य में रहते हैं। जो सामान्य-विशेषोभयस्वरूप द्रव्यत्व-पृथिवीत्वादि जातियाँ है वे सिर्फ द्रव्य में रहती हैं जब कि गुणत्व या कर्मत्वादि जातियाँ द्रव्य में नहीं किन्तु द्रव्यसम्बद्ध गुण या कर्म में रहती हैं । सत्ता महासामान्य द्रव्य-गुण-कर्म तीनों में वास करता है । विशेष पदार्थ सिर्फ नित्य द्रव्यों में ही रहते हैं। पूर्वग्रन्थ में द्रव्य का प्रतिषेध किया जा चुका है अतः उस के आश्रित गुणादि का भी प्रतिषेध जान लेना चाहिये । समवाय भी बाकी नहीं रहता, क्योंकि यद्यपि वह उक्त पाँच पदार्थों का सम्बन्ध है. किन्त पाँच सम्बन्धियों के प्रतिषेध से उस का भी प्रतिषेध हो जाता है । जब कोई आश्रय-आश्रित ही नहीं हैं तब उस के सम्बन्ध का सद्भाव नहीं हो सकता । इस प्रकार, द्रव्य का निषेध हो जाने पर सकल परपक्षिप्रदर्शित पदार्थों का अपने आप निषेध हो जाता है, तथापि एकान्तवादीयों के दर्शन सर्वथा अयुक्त हैं यह प्रदर्शित करना अभीष्ट होने से, सविशेष गुणादि पदार्थों का निषेध दिखाया जा रहा है -
* चौबीस गुणों का नामोल्लेख * गुण के लिये वैशेषिक दर्शन में कहा है – रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोगविभाग, परत्व-अपरत्व, बुद्धि, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न ये १७ गुण तो कंठतः ही कहे हैं और सूत्र
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