________________
पञ्चमः खण्डः
का० ४९
११९
अथ तदन्तर्भावेऽपि अवान्तरविभिन्नलक्षणवशात् प्रयोजनवशाद्वा द्रव्यादिषट्कव्यवस्था तर्हि तत एव प्रमाणादिषोडशकव्यवस्था तमश्छायादिद्रव्यान्तरव्यवस्थाऽपि भविष्यति इति 'न्यूनाधिक ० ' इत्यादि - विशेषणानुपपत्तिरेव । न च तमश्छायादेर्बहलत्वादि - तरतमविशेषयोगिनो विशिष्टार्थक्रियानिर्वर्त्तनसमर्थस्य च भासामभावरूपतेति वक्तव्यम्, भासामप्येवं तमश्छायाऽभावरूपताप्रसक्तेः । न चावारकद्रव्यसन्निधानापेक्षतेजोऽभावरूपता तयोः, स्वसामग्रीतो विशिष्टपदार्थोत्पत्तौ प्रतियोग्यभावरूपत्वे भासामपि तथात्वोपपत्तेः । यदपि मधुर-शीतद्रव्योपयोगाद् ये गुणाः समुपजायन्ते छायादिसेवनादपि ते प्रादुर्भवन्तीत्युपचारात् ‘छाया मधुर-शीतला' इत्युच्यते तत् तेजस्यपि समानम् । यथा च छाया-तमसोः पुद्गलद्रव्यात्मकत्वं तथा प्राक् (चतुर्थखंडे) प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते । तदेवं 'पृथिव्यादीनि नव द्रव्याणि' इत्यनुपपन्नम् तत्सद्भावप्रतिपादकप्रमाणाभावात् बाधकस्य च प्रदर्शितत्वात् ।
* न्यूनाधिक विशेषण की असंगति तदवस्थ *
अब आप कहेंगे कि प्रमाण- प्रमेय इन दों में छ पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाने पर भी उन प्रमेयों के जो अनेक भेद हैं उन में सभी का अवान्तर लक्षण भिन्न भिन्न हैं इसलिये, अथवा उन को स्वतन्त्ररूप से बोधित करने के प्रयोजन से, पदार्थव्यवस्था में छ पदार्थ बताये गये हैं। तब तो ऐसा भी कह सकते हैं कि विशेष प्रयोजन से न्यायदर्शन में सोलह पदार्थों की व्यवस्था बतायी गयी है, न कि पदार्थ उतने ही हैं इस लिये । तथा, नव द्रव्यों की व्यवस्था भी सिर्फ व्यवस्था के लिये ही की गयी होगी, अतः तमस् और छाया को नव से अतिरिक्त द्रव्य मान लेने में कोई बाध नहीं है । फलतः 'न्यूनाधिक प्रतिपादक प्रमाण नहीं है' यह (हेतुगत) विशेषण अंश असंगत ठहरता है । जिस तमस् और छाया में, निबिड, निबिडतर, निबिड म अंधकार, घन-घनतर - घनतम छाया इस प्रकार तर - तमभावस्वरूप विशेषता उपलब्ध होती है, तथा संतप्त पुरुषों को साताजननादि विशिष्ट अर्थक्रिया के फलन में जो समर्थ हैं उन को सिर्फ तेजस् के अभावरूप में करार देना उचित नहीं है, क्योंकि उस से उलटा यानी तेजस् को तमस् के अभावरूप में घोषित करने का अतिप्रसंग हो सकता । यदि ऐसा कहेंगे कि जब कोई आवरण द्रव्य बीच में आ जाता है तब तेजस का अभाव होने पर ही अन्धकार की या छाया की प्रतीति होती है इस लिये वे दोनों तेजस्अभाव स्वरूप होने चाहिये । नहीं, ऐसी बात नहीं है । आवरण द्रव्य तो तमस् की उत्पत्ति के लिये सामग्रीरूप है, अपनी सामग्री से तमसूरूप अतिरिक्त द्रव्य उत्पन्न होता है, उस को आप अगर प्रतियोगिस्वरूप तेजस् का अभाव ही करार देंगे तो ऐसा भी मानने की विपदा होगी कि आवरण द्रव्य के हठ जाने से तमोद्रव्य का अभाव होने पर ही तेजस् की प्रतीति होती है अतः प्रभा 'तमस् का अभाव' ही है ।
Jain Educationa International
-
मधुर एवं शीतल होती है' इस से
तथा आयुर्वेद में बताया है कि ' छाया भी छाया द्रव्यरूप सिद्ध होती । इस पर जो नैयायिकादि कहते हैं कि 'मधुर-शीत द्रव्य के सेवन से जो लाभ होता है वही छायादि के सेवन से होता है इसी लिये छाया को उपचार से मधुर - शीतल बताया गया है' वह ठीक नहीं है, क्योंकि इससे विपरीत तेजस् के लिये ऐसा ही कहा जा सकता है कि उष्म द्रव्यों के सेवन से जो लाभ होता है वही आतपादि के सेवन से भी होता है अतः उस को उपचार से द्रव्य कहा गया है, वास्तव में तेजस् द्रव्यरूप नहीं है । छाया और तमस् पुद्गलमय ( = भौतिक) हैं इस तथ्य का उपपादन पहले हो चुका है अतः पुनरुक्ति की जरूर नहीं । निष्कर्ष – 'पृथ्वी आदि नव ही द्रव्य हैं' यह न्याय-वैशेषिक दर्शन का सिद्धान्त असंगत है, क्योंकि उस में बाधक का प्रदर्शन किया जा चुका है और नव द्रव्यों का साधक कोई प्रमाण भी नहीं है ।
-
—
-
For Personal and Private Use Only
-
www.jainelibrary.org