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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
सिद्धौ ' साध्याभावे सर्वत्र साधनस्य अभाव : " इति सकलाक्षेपेण व्यतिरेकस्याऽसम्भवात्" इत्यादेर्न्यायस्याऽसकृत् प्रतिपादितत्वात् ।
यदपि 'नवैव द्रव्याणि' इत्यादिप्रयोगप्रतिपादनम् । ( पृ० ८२ - ९ ) तदप्यसंगतमेव; तत्स्वरूपाऽसिद्धौ तत्संख्यासिद्धेर्दूरापास्तत्वात् । न च लक्षणयोगित्वमपि तेषाम् असिद्धपृथिवीत्वाभिसम्बन्धादेर्लक्षणस्यानुपपत्तेः । अत एवान्योन्यव्यावृत्तादेर्विशेषणस्यानुपपत्तिर्विशेष्याभावे विशेषणस्याप्यसम्भवात्। ‘न्यूनाधिक' (८२-७) इत्याद्यपि तद्विशेषणमसंगतम् प्रमाण- प्रमेय - संशय- प्रयोजन - दृष्टान्त - सिद्धान्तअवयव-तर्क-निर्णय-वाद- जल्प - वितण्डा - हेत्वाभास छल - जाति - निग्रहस्थानानां नैयायिकाभ्युपगतपदार्थानां षट्पदार्थाधिकानाम् तमश्छायादीनां च नवद्रव्याधिकानां सद्भावात् । न च पदार्थषोडशकस्य षट्ष्वेवान्तर्भावात् तमश्छायादीनां च तेजोऽभावरूपत्वान्न तदधिकपदार्थसद्भाव इति वक्तव्यम् - द्रव्यादीना - मपि षण्णां प्रमाण-प्रमेयरूपपदार्थद्वयेऽन्तर्भावात् पदार्थषट्कस्याप्यनुपपत्तेः ।
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प्रमाण के विषयभूत साधर्म्य दृष्टान्त उपलब्ध नहीं होता तब तक सर्वत्र व्यापकरूप से साध्य के विरह में हेतु के विरह का निश्चय भी नहीं हो सकता, अतः व्यतिरेकव्याप्ति का सम्भव भी वहाँ रह नहीं पाता । कई बार यह न्याय पहले कहा जा चुका है कि साध्य की उपस्थिति में ही सर्वत्र साधन की उपस्थिति होती है, इस प्रकार का अन्वय जिस साध्य - साधन में अप्रसिद्ध है, उन में, साध्य के विरह में साधन का अवश्य विरह होता है - इस प्रकार के व्यतिरेक का भी सम्भव नहीं होता ।
* नव से अधिक द्रव्य, छ से अधिक पदार्थ सम्भव
'द्रव्य सिर्फ नव ही है' इस प्रकार जो द्रव्यों की संख्या का निर्धारण किया गया है वह भी असंगत है क्योंकि जब द्रव्यों का स्वरूप ही असिद्ध है तब उन की संख्या की सिद्धि की आशा कैसे की जा सकती है ?! पृथ्वी आदि में इतरभेद की सिद्धि के लिये पृथिवीत्वादिलक्षण के सम्बन्ध को हेतुरूप में प्रयुक्त करना भी ठीक नहीं है क्योंकि पृथिवीत्वादि जाति स्वयं असिद्ध है तब उस का सम्बन्धादिलक्षण हेतु कैसे संगत हो सकेगा ? 'पदार्थ छः ही हैं' और 'द्रव्य नव ही है' इस साध्य की सिद्धि के लिये प्रयुक्त हेतुओं में जो पूर्वपक्षीने यह विशेषण किया था 'अन्योन्यव्यावृत्त' - यह विशेषण असंगत है क्योंकि जब षट् पदार्थसाधक प्रमाण विषयत्वरूप विशेष्य तथा (परस्परव्यावृत्त) नवलक्षणयोगित्व रूप विशेष्य ही घटता नहीं है तब 'परस्परव्यावृत्त' इस विशेषण का सम्भव ही कहाँ रहेगा ?! तथा उसी प्रयोगयुगल में जो 'न्यूनाधिकप्रतिपादक प्रमाण का अभाव' ( पृ० ८२) यह विशेषण दिया है वह भी असंगत है, क्योंकि छः पदार्थों से भी अधिक यानी १६ पदार्थ नैयायिकोंने कहे हैं। प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान ये हैं उन के सोलह पदार्थ । तथा नव द्रव्यों से अधिक तमस् - छायादि द्रव्यों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है इसलिये नव से अधिक द्रव्यों का प्रतिपादक प्रमाण का सद्भाव है । यदि यह कहा जाय ' प्रमाणादि सोलह पदार्थों का छः पदार्थों में अन्तर्भाव हो जाता है, जैसे प्रमाण का ज्ञानगुण में, प्रमेय तो छ: है ही, संशय का ज्ञानगुण में.... इत्यादि । तथा तमस् - छाया तो तेजोद्रव्य का अभाव ही है इस लिये भावसंख्या छ बताने में कोई दोष नहीं है और छ से अधिक पदार्थों का सद्भाव नहीं है ऐसा कह सकते हैं' तो ऐसा मत बोलिये, क्योंकि तब तो द्रव्य-गुणादि छ पदार्थों का प्रमाण और प्रमेय इन दो पदार्थों मे ही समावेश शक्य है, इस लिये 'छ से न्यून पदार्थ नहीं है' ऐसा भी नहीं कह सकेंगे और छ पदार्थ वार्त्ता असंगत आ पडेगी ।
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