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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ एवायं भेदः, पदार्थेष्वपि स्वत एवायं किं नाभ्युपगम्यते ? ततश्च पुनरपि दिक्-कालप्रकल्पनं व्यर्थम् ।
मनःसाधनेऽपि हेतौ कारणमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता, मनस्कारादेश्चक्षुरादिव्यतिरिक्तस्य कारणमात्रस्येष्टेः । विशेषेण तु नित्यैकमनःसाधनेऽनन्वयदोषः प्रतिज्ञायाश्वानुमानबाधा इष्टविपर्ययसाधनाद्, विरुद्धश्च हेतुरिति दोषाः पूर्ववद् वाच्याः । चक्षुरादिव्यतिरिक्तानित्यकारणसापेक्षत्वस्य साधनाद्विरुद्धता प्रकटैव, अन्यथा ह्यत्रापि नित्यकारणत्वे चेतसामविकलकारणत्वात क्रमोत्पत्तिविरुद्धैव भवेत् । तन्न पृथिव्यादेर्मनःपर्यन्तस्य द्रव्यनवकस्य प्रमाणतः सिद्धिः । ततः पृथिव्यादीनि द्रव्याणि इतरेभ्यो भिद्यन्ते द्रव्यत्वाभिसम्बन्धात्' (पृ० ८३-१) इत्यादिहेतूपन्यासोऽयुक्त एव, तत्स्वरूपाऽसिद्धौ हेतोराश्रयासिद्धत्वदोषात् । स्वरूपासिद्धश्चायं हेतुः द्रव्यत्वाभिसम्बन्धस्य समवायलक्षणस्याऽसिद्धेः । विशेषणाऽसिद्धश्च द्रव्यत्वसामान्यस्य निषिद्धत्वान्निषेत्स्यमानत्वाच्च । न चात्रान्वयः सिद्धः, साधर्म्यदृष्टान्तस्याभावात् । न च सपक्षाभावे केवलव्यतिरेकी हेतुर्गमकः, प्रतिबन्धप्रसाधकप्रमाणविषयसाधर्म्यदृष्टान्ताभावे सर्वत्र साध्याभावात् साधनस्य व्यावृत्त्यसिद्धेः । “साध्यसद्भावे एव सर्वत्र साधनसद्भावः' इत्येवंभूतान्वयाऽप्रतो (उस के एकत्व का भंग तो होगा ही, उपरांत) पदार्थों में भी स्वतः पूर्वापरभेद क्यों न मान लिया जाय ? नतीजतन, ऐसे भी दिक्काल की कल्पना निरर्थक ठहरेगी ।
* विशेषरूप से मनःसाधक अनुमान में बाधादि दोष * मन की सिद्धि के लिये प्रयुक्त हेतु से, इन्द्रियों से अतिरिक्त सिर्फ आन्तर कारण ही सिद्ध करना हो तो सिद्धसाधनदोष प्रसक्त है. क्योंकि चक्ष आदि से अतिरिक्त जानकारण के रूप में मनस्कार हमें भी मंजर है। यदि विशेषतः नित्य एवं एकमात्र मन की सिद्धि अभिलषित हो तो हेत में साध्य की 3 व्याप्तिरूप अनन्वय दोष होगा। प्रतिज्ञा में अनुमान बाधा ही होगी क्योंकि नित्य को किसी की अपेक्षा न होने से अविकलकारणत्व हेतु से सदैव ज्ञानोत्पत्ति की सिद्धि का अनिष्ट प्रसक्त होने से बाध पहुँचेगा । तथा इष्टविपर्यय यानी हेतु से नित्यविपरीत साध्यसिद्धि होने से विरुद्ध दोष होगा - ये दोष अकाश-काल के बारे में जैसे कहे गये हैं वैसे ही समझ लेना । इस में विरुद्धता इस तरह अत्यन्त प्रगट है कि जो सापेक्ष होता है वह अनित्य होता है, अतः चक्षुआदि से अतिरिक्त अनित्यमनःसापेक्षता ही सिद्ध होगी न कि नित्यमनःसापेक्षता । यदि सिद्ध होने वाले कारण को नित्य माना जाय तो नित्य चेतस् रूप अविकल कारण से तीन काल में होनेवाले सब ज्ञान एक साथ ही उत्पन्न हो जायेगा न कि क्रमशः । क्रमशः ज्ञानोत्पत्ति मन की नित्यता से विरुद्ध है।
निष्कर्ष, न्याय-वैशेषिकमताभिप्रेत 'पृथ्वी से मनः पर्यन्त नव द्रव्यों' की सिद्धि में प्रमाण नहीं है । (एकान्त नित्य आत्मा की सिद्धि का पहले खंड में ही प्रतिषेध किया है ।)
* पृथ्वीआदि द्रव्यों में गुणादिभेद का अनुमान व्यर्थ * 'पृथिवी आदि द्रव्य अन्य (गुणादि) से भेदशाली हैं, क्योंकि द्रव्यत्वजातिसम्बद्ध हैं' इस तरह जो व्यतिरेकी अनुमान पूर्व-पक्षियों की ओर से दिया जाता है वह अब निरर्थक है क्योंकि उक्त रीति से जब नव द्रव्यों की सिद्धि में बडे बडे बाधक उपस्थित हैं तब उन की स्वरूपतः एवं पक्षरूप में भी असिद्धि होने से द्रव्यत्वाभिस हेतु आश्रयासिद्धिदोष-दुषित हो जाता है । हेतु भी स्वरूपासिद्ध है क्योंकि द्रव्यत्व का समवाय सम्बन्ध भी
है । हेतु में द्रव्यत्वरूप विशेषण भी असिद्ध है, क्योंकि न्याय-वैशेषिक अभिलषित द्रव्यत्वजाति का पहले निषेध किया है और आगे किया जायेगा । दूसरी बात यह है कि केवलव्यतिरेकी हेतु से साध्यसिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि उस का कोइ सपक्ष यानी अन्वय दृष्टान्त नहीं होता । जब तक व्याप्ति के साधक
सिद्ध
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