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________________ ११६ यजनकस्य तद्विषयत्वात्; निरंशस्य च पौर्वापर्यादिविभागाभावतस्तथाभूतप्रत्ययोत्पादकत्वाऽसम्भवात् । तथाभूतप्रत्ययाद्विपरीतार्थसिद्धेः इष्टविपर्ययसाधनात् विरुद्धश्चैवं हेतुः स्यात् । -कला अथ बाह्याध्यात्मिकभावपौर्वापर्यनिबन्धनस्य दिक्-कालयोः पौर्वापर्यव्यपदेशस्य भावान्न हेतोर्विरुद्धता । नन्वेवं दिक्-कालपरिकल्पना व्यर्था तत्साध्याभिमतस्य कार्यस्य बाह्याध्यात्मिकैः सम्बन्धिभिरेव निर्वर्त्तितत्वात् । तथाहि दिक् पूर्वापरादिव्यवस्थाहेतुरिष्यते कालश्च पूर्वापरक्षण - लव - निमेष - क मुहूर्त्त - प्रहर दिवस अहोरात्र पक्ष- मास ऋतु - अयन - संवत्सरादिप्रत्ययप्रसवनिमित्तोऽभ्युपगतः । अयं च स्वरूपभेदः स्वात्मनि तयोः समस्तोऽप्यसम्भवी तत्सम्बन्धिषु पुनर्भावेषु विद्यमानस्तत्र प्रत्ययहेतुरिति व्यर्था तत्प्रकल्पना । अथ तत्सम्बन्धिष्वप्ययं भेदोऽपरक्रियादिभेदनिमित्तस्तर्हि तत्राप्येवमिति अनवस्थाप्रसक्तिः । अथ पदार्थेषु पूर्वापरभेदः कालनिमित्तः, ननु कालोप्यसौ न स्वतः इति अपरकालनिमित्तो यद्यभ्युपगम्यते तदानवस्था । अथ पदार्थभेदनिमित्तस्तदेतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गः । अथ तत्र स्वत पदार्थ का योगदान सिद्ध करना आप चाहते हैं वह ठीक नहीं, क्योंकि कोई भी पदार्थ किसी एक प्रतीति का विषय तभी माना जाता है जब वह पदार्थ अपने से समानाकार प्रतीति को उत्पन्न करता है । किन्तु प्रस्तुत में निरंश माने जानेवाले दिक्-काल पदार्थ में पूर्व - पश्चात् आदि विभाग ही नहीं है तो उन से पूर्व - पश्चात् आदि विभाग विषयक प्रतीति को कैसे उत्पन्न करेगा ? ! वास्तव में तो दिक्-काल साधक पूर्वापरादिप्रतीतिरूप हेतु विरुद्ध ठहरता है, क्योंकि वह तो पूर्वापरविभागावगाही होने से एक अखंड - निरवयव पदार्थ से विपरीत अनेक सखंड - सावयव पदार्थ को सिद्ध करने के कारण इष्ट-सिद्धि का विघातक है । * दिक्-काल की कल्पना निरर्थक — श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यदि यह कहा जाय 'हेतु विरुद्ध नहीं हो सकता क्योंकि हेतु से तो सिर्फ दिक्-काल ही सिद्ध करना अभिप्रेत है और दिशा और काल एक और निर्विभाग होने पर भी अपने सम्बन्धि बाह्य प्रदीपादि तथा अभ्यन्तर शरीरादि पदार्थों के पूर्वापरभाव के मूलाधार पर दिक्-काल में भी उपचरित पूर्वापरभाव का व्यवहार होता ही है ।' अरे, तब तो दिक्-काल की कल्पना भी निरर्थक ठहरेगी। कारण, दिशा और काल से जो पदार्थगत परापरत्व की घटना रूप कार्य सिद्ध करना चाहते हैं वह कार्य तो बाह्य - अभ्यन्तर अपने सम्बन्धियों से निपट जाता है । कैसे यह देखिये ' यह पूर्व में, वह पश्चिम में' ऐसी व्यवस्था का हेतु दिशा मानी जाती है, तथा पूर्वक्षण, पश्चिमक्षण एवं लव, निमेष, कला, मुहूर्त्त प्रहर दिवस, अहोरात्र, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, वर्ष इत्यादि में पूर्व-पश्चिमभाव की प्रतीति के जन्म में निमित्तरूप में काल की कल्पना की जाती है । किन्तु दिशा में और काल में एक और अखंड होने के कारण स्वतः तो सम्पूर्ण भेद होते नहीं, जो पूर्वापर भेद हैं वे तो दिक्कालसम्बन्धि पदार्थों में स्वतः आपने मान लिया है, उन से ही यानी पदार्थगत पूर्वापरभेद से ही पूर्वापरप्रतीति घटित हो जाती है तो अब दिक्-काल की कल्पना किस के लिये ? Jain Educationa International - * क्रियादिभेदमूलक पूर्वापरभेद मानने में अनवस्था यदि ऐसा कहें कि पदार्थों में भी पूर्वापरभेद स्वतः नहीं किन्तु अन्य क्रियादिभेद पर अवलम्बित है तो फिर उन क्रियादिभेदों को अन्यावलम्बित मानने पर अनवस्था दोष प्रसक्त होगा । यदि पदार्थगत भेदों को कालनिमित्त माना जायेगा तो काल में जो पक्ष मासादि भेद हैं उन के लिये अन्यकाल - निमित्त की कल्पना होने पर पुनः अनवस्था दोष होगा । यदि उन काल के भेदों को पदार्थभेदावलम्बित मानेंगे तो दोनों एकदूसरे पर अवलम्बी हो जाने से अन्योन्याश्रय दोष होगा । यदि कालगत भेदों को स्वतः होने का मान लेंगे For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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