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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ ११५ इति व्यपदेशः, प्रागेवास्य प्रतिषिद्धत्वात् । अपि च, अनल-कर्णशष्कुल्यादयोऽपि समानदेशाः स्युः अभिन्नैकनभः-संसर्गित्वात् । तथाहि – येनैको वियत्स्वभावेन संयुक्तस्तेनैवापरोऽपीति तद्देशभावी सोऽपि स्यात्, तत्संयुक्तस्वभाववियत्संसर्गित्वात् तद्देशावस्थितानलवत् । शब्दानामपि अत एवैकदेशत्वात् एकोपलम्भे सर्वोपलब्धिश्च स्यात् । दूरासन्नाद्यवस्थायिता तु भावानां प्रतीतिगोचरा विरोधिनी च भवेत् । दिक्-कालसाधनप्रयोगेष्वपि एते दोषाः - सामान्येन साधने सिद्धसाध्यता, विशेषसाधने हेतोरन्वयाद्यसिद्धिरनुमानबाधितत्वं च प्रतिज्ञायाः इति समानाः । तथाहि – पूर्वापरोत्पन्नपदार्थविषयपूर्वापरशब्दसंकेतवशोद्भूतसंस्कारनिबन्धनत्वात् प्रकृतप्रत्ययस्य, कारणमात्रे साध्ये कथं न सिद्धसाध्यता ? विशेषे च कथं नान्वयाऽसिद्धिः ? अनुमानबाधा च प्रतिज्ञायाः पूर्ववद् भावनीयाः । अत एव नेतरेतराश्रयदोषोऽपि पूर्वपक्षोदितो (पृ०११२-४) विशिष्टपदार्थसंकेतप्रभवत्वेऽस्य प्रत्ययस्य । किंच, निरंशैकदिक्कालाख्यपदार्थनिमित्तत्वं पराऽपरादिप्रत्ययस्य प्रसाधयितुमभ्युपगतम् तच्चाऽयुक्तम् स्वाकारानुकारिपत्य यह भी नहीं कह सकते कि - 'संयोग की अव्याप्यवृत्तिता ही आकाश का देश है' - क्योंकि उस का पहले ही प्रतिषेध कर आये हैं। दूसरी बात यह है कि अग्नि और कर्णछिद्र में समानदेशता प्रसक्त होगी, क्योंकि दोनों ही अखंड एक गगन के संसर्गी है । कैसे यह देखिये - एक के साथ संयोग का प्रयोजक जो गगनस्वभाव है वही दूसरे के साथ संयोग का प्रयोजक है । अतः दोनों ही समानदेशस्थायी होने चाहिये, क्योंकि दोनों ही अपने साथ संयुक्त स्वभाववाले एक ही गगन के संसर्गी हैं जैसे प्रकाश और अग्नि समानदेशस्थायी होते हैं । इस ढंग से जब यह सिद्ध होता है कि सभी शब्द समान (गगन) देशस्थायी हैं तब एक शब्द की उपलब्धि होने पर सभी शब्दों का उपलम्भ होने का अतिप्रसंग दुर्निवार है । दूसरा दोष यह होगा कि 'वह दूर है यह निकट है' इस प्रकार की प्रतीति से जो दूर-निकट भावों की व्यवस्था होती है उस के साथ विरोध होगा, क्योंकि निरवयव आकाश का कोई दूर-निकट विभाग सम्भव नहीं है । * दिक्-कालसाधक अनुमानों में दूषण * दिशा और काल की सिद्धि के लिये जो प्रयोग दिखाया गया है उन में आकाशप्रकरण में दिये गये दोष समानरूप से लागू होते हैं – यदि सामान्यतः दिक्-काल तत्त्व की सिद्धि अपेक्षित है तब ‘सिद्ध का साधन' दोष है, विशेषरूप से एकत्वादिधर्मयुक्त दिक्-काल की सिद्धि अभिप्रेत हो तब हेतु में अन्वय (व्याप्ति) की असिद्धि, दृष्टान्तासिद्धि और प्रतिज्ञा में अनुमानबाध ये दोष पूर्ववत् प्रसक्त हैं । देख लीजिये – पूर्व-पश्चात् उत्पन्न पदार्थों के विषय में किये गये 'पूर्व-अपर' शब्दों के संकेत के प्रभाव से जाग्रत होनेवाले संस्कार पराऽपरत्व प्रतीति एवं व्यवहार का मूलाधार है - इस ढंग से संस्काररूप सामान्य कारण की सिद्धि करना अभिप्रेत हो तो वह हम भी मानते हैं, तब सिद्ध-साधन दोष कैसे टलेगा ? विशेषरूप से यानी एक-व्यापक-नित्यद्रव्यरूप कारण की सिद्धि यदि करना हो तो वैसे साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति सिद्ध न होने से व्याप्यत्वासिद्धि स्पष्ट है । प्रतिअनुमान से यहाँ बाध पहुँचता है - एकाश्रयत्व और अविकल दिक् और कालरूप कारण उपस्थित होने से सभी वस्तु में समान-दिग्वर्त्तित्व और समकालीनता का प्रतिअनुमान एक-नित्य-व्यापक दिक्-काल के अनुमान को बाधप्रहत कर देता है । पूर्वपक्षीने दिक्-सिद्धि के विपरीतपक्ष में जो, 'पूर्वत्व सिद्ध नहीं होगा तब तक पश्चिमत्व असिद्ध रहेगा'... इत्यादि अन्योन्याश्रय दोष कहा था वह भी निरवकाश है, क्योंकि एक की अपेक्षा सूर्योदय के निकटवर्ती पदार्थ में एवं सूर्यास्त के निकटवर्ती पदार्थ में क्रमशः किये गये संकेत अनुसार यह 'पूर्व' है वह ‘पश्चिम' है ऐसी प्रतीति आसानी से की जा सकती है। यह भी सोचना है परापरादिप्रतीति में जो निरंश-एक दिक्-काल संज्ञक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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