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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
अतिप्रसङ्गाच्च अवयविद्रव्यस्याप्यवयवद्रव्याश्रितत्वाद् गुणत्वापत्तेः ।
संख्या तु एकादिव्यवहारहेतुरेकत्वादिलक्षणा परैरभ्युपगता । सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च । तत्रैकसंख्यैकद्रव्या, अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिसंख्या । तत्रैकद्रव्यायाः सलिलादिपरमाण्वादिगतरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । अनेकद्रव्यायास्तु एकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः, अपेक्षाबुद्धिविनाशाद् विनाशः क्वचिदाश्रयविनाशादिति । इयं च द्विविधापि संख्या प्रत्यक्षतः एव सिद्धा, विशेषबुद्धेश्च निमित्तान्तरापेक्षत्वाद् अनुमानतोऽपि सिद्धिः - इति परे मन्यन्ते । अत्र समुदायव्यावृत्तै - कत्वादिसंज्ञाविषयपदार्थव्यतिरेकेणोपलब्धिलक्षणप्राप्तायाः संख्याया अनुपलब्धेरसत्त्वं शशविषाणवत् । न च विशेषणमसिद्धम् तस्या दृश्यत्वेनेष्टेः । तथा च सूत्रम् - ' संख्या - परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोगविभागौ परत्वाऽपरत्वे कर्म च रूपिसमवायाच्चाक्षुषाणि' (वै०द० ४-१-११ ) । न च विशेषबुद्धितोऽनुमानतोऽपि संख्यासिद्धिः, यतो यथा 'एको गुणः ' ' बहवो गुणाः' इत्यादौ संख्यामन्तरेणापि ठीक नहीं क्योंकि वह नीलादि गुण यदि असत् हैं तो वह किसी का आश्रित नहीं हो सकता, यदि सत् है तो भी उस का कोई आश्रय नही हो सकता क्योंकि 'सत्' अपने आप में अविकार्य परिपूर्ण होता है अतः उस को किसी आश्रय की अपेक्षा नहीं रहती । दूसरी बात यह है कि द्रव्याश्रित हो उस को गुण मानेंगे तो अवयविद्रव्य भी अवयवद्रव्यों का आश्रित होता है अतः उसे भी 'गुण' मानने की आपत्ति होगी । * संख्या एकद्रव्या-अनेकद्रव्या-नित्या - अनित्या *
एक - दो... इत्यादिव्यवहार के हेतु एकत्व - द्वित्वादि गुण को न्याय-वैशेषिक दर्शन में 'संख्या' कहा गया है । उस के दो भेद हैं एकद्रव्या और अनेकद्रव्या । 'एकत्व' संख्या सिर्फ एक द्रव्य में ही समवेत होती है अतः वह एकद्रव्या है । द्वित्व आदि संख्या अनेकाश्रय में रहती है अतः वह अनेकद्रव्या है । एकद्रव्या एकत्व - संख्या नित्य भी होती है और अनित्य भी । परमाणु आदि नित्यद्रव्यगत एकत्व नित्य है, द्व्यणुकादि और स्थूल जलादि द्रव्य में एकत्व अनित्य है, जैसे परमाणुगत रूपादि नित्य होता है और स्थूल द्रव्य में वह अनित्य होता है । अनेकद्रव्या संख्या की निष्पत्ति, अनेक द्रव्यों में रहे हुए अनेक एकत्व से तथा 'ये अनेक हैं' इस प्रकार की अनेकविषयक बुद्धि के सहयोग से होती है । अपेक्षाबुद्धिविनाश से तथा कभी कभी आश्रय के विनाश से वह संख्या नष्ट होती है ।
यह एक है ये अनेक हैं
ये दोनों ही संख्या प्रत्यक्षसिद्ध हैं। ऐसा बोध प्रत्यक्ष होता है । अनुमान से भी संख्या की सिद्धि की जा सकती है, संख्यावगाही बुद्धि विशेषबुद्धि है इसलिये वह द्रव्यादि से अतिरिक्त एवं रूपादि से अतिरिक्त किसी निमित्त के विना नहीं हो सकती, जो निमित्त सिद्ध होगा वही संख्यात्मक गुण है । यह न्याय-वैशेषिकों का मत है ।
* समुदायव्यावृत्त भाव ही संख्या है *
उन के सामने बौद्ध आदि दार्शनिकों का यह प्रतिपादन है। जब घट अकेला होता है तब उसमें समुदाय की बुद्धि नहीं होती अतः समुदायव्यावृत्त घट यही 'एक' इस संज्ञा का विषयभूत भाव है; इसी तरह ‘दो’ 'तीन' इत्यादि संज्ञा के विषयभूत भाव द्व्यधिकव्यावृत्त, त्र्यधिकव्यावृत्त घट आदि हैं, मतलब कि दृश्यमान पदार्थ ही संख्याभूत है उन से अतिरिक्त कोई संख्या, उपलब्धि लक्षण प्राप्त होने पर भी उपलब्ध न होने से, शशसींग की तरह असत् है । ‘उपलब्धिलक्षणप्राप्त' यह विशेषण असिद्ध नहीं है क्योंकि संख्या सभी को दृश्यरूप से
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