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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् दुपरिष्टात्' अमी दश प्रत्यया यतो भवन्ति सा दिग् इति । तथा च सूत्रम् – 'अत इदम् इति यतस्तद् दिशो लिंगम्' (वैशे० द० २-२-१०) इति । एते हि विशेषप्रत्यया न आकस्मिकाः सम्भवन्ति । न च परस्परापेक्षमूर्त्तद्रव्यनिमित्ताः इतरेतराश्रयत्वेनोभयप्रत्ययाभावप्रसक्तेः । ततोऽन्यनिमित्तोत्पाद्यत्वाऽसम्भवादेते दिशो लिंगभूताः । दिशश्च विभुत्वैकत्वनित्यत्वादयो धर्माः कालवद् अवगन्तव्याः । तस्याश्चैकत्वेऽपि प्राच्यादिभेदेन नानात्वं कार्यविशेषाद् व्यवस्थितम् । प्रयोगश्चात्र यदेतत् पूर्वाऽपरादिज्ञानम् तद् मूर्त्तद्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनम्, तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्, सुखादिज्ञानवत् इति । ____ आत्मद्रव्यस्य च विभुत्वादिधर्मोपेतस्य पराऽभ्युपगतस्य प्रागेव (प्रथमखंडे पृष्ठ ५३६) प्रतिषेधः कृत इति न तत्पूर्वपक्षः पुनः प्रदर्श्यते ।
'इस से यह पूर्व में है अथवा इस से यह दक्षिण में है, अथवा इस से यह पश्चिम में है अथवा "इस से यह उत्तर में है, अथवा 'इस से यह अग्निकोण में है, अथवा ६इस से यह नैर्ऋत्य में है, अथवा "इस से यह वायव्य में है, “अथवा इस से यह ईशान में है, अथवा इस से यह निम्नस्थान में है, १ अथवा इस से यह ऊँचाई पर है ।
इन प्रतीतियों का मूलाधार जो है वही 'दिशा' द्रव्य है । वैशेषिकदर्शन के सूत्र में कहा है – “जिस के निमित्त 'इस से यह' ऐसा भान होता है वही (निमित्त) दिशा का लिंग है ।" उक्त दश भेद वाली जो विशेष-प्रतीतियाँ हैं वह निष्कारण नहीं हो सकती । सीमांकन करनेवाले मूर्त्तद्रव्यों के निमित्त से वे प्रतीतियाँ होती हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि अन्योन्याश्रय हो जाने से, दो में से एक भी प्रतीति जन्म नहीं पा सकेगी । तात्पर्य यह है कि किसी एक मूर्त में पूर्वत्व तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक उस के सामने रहे हुए मूर्त द्रव्य में पश्चिमत्व की स्थापना न हो जाय; तथा किसी एक मूर्त्तद्रव्य में पश्चिमत्व की स्थापना तब तक नहीं हो सकेगी जब तक उसके सामने रहे हुए मूर्त द्रव्य में पूर्वत्व सिद्ध न हो जाय । फलतः न तो पूर्व की प्रतीति होगी न पश्चिम की । आकाशादि अन्य किसी निमित्त से भी पूर्वादि का भान होना सम्भव नहीं है। अतः इन प्रतीतियों के लिंगभाव से 'दिशा' नामक एक स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध होता है । काल की तरह दिशा में भी एकत्व, व्यापकत्व और नित्यत्वादि धर्म समझ लेना चाहिये । यदि कहें कि – दिशा एक ही द्रव्य है तो फिर पूर्वादि १० भेदों का क्या होगा ? - तो जवाब है कि दिशा तो एक ही है किन्तु किसी मूर्त द्रव्य में पूर्व का और किसी में पश्चिम का भान और व्यवहार कार्यभेद को ले कर हो सकता है । जैसे एक ही चैत्र कार्यभेद से पाचक-वाचक आदि कहा जाता है वैसे एक ही दिशा पूर्वादिप्रतीतियाँरूप कार्यभेद से विविध मानी गयी है।
दिशा के लिये यह प्रयोग देखिये - जो यह 'पूर्व-पश्चिम' इत्यादिरूप से ज्ञान होता है वह मूर्त्तद्रव्य से भिन्न किसी पदार्थ के निमित्त से होता है, क्योंकि मूर्त्तद्रव्य के ज्ञान से यह ज्ञान विलक्षण है, जैसे सुखादिज्ञान । मूर्त्तादिज्ञान से विलक्षण सुखादिज्ञान के मूलनिमित्त के रूप में जैसे स्वतन्त्र विषयद्रव्य सिद्ध है वैसे ही पूर्वपश्चिमादिज्ञान मूर्त्तद्रव्यज्ञान से विलक्षण होने से उस के मूलाधार रूप में दिशा नाम का स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध होता है । __ न्याय-वैशेषिक मत में आत्म द्रव्य को विभु और नित्य माना गया है । वास्तव में, आत्मा में विभुत्व और नित्यत्व युक्तिसंगत न होने से पहले खंड में पृष्ठांक ५३६ से ही उसका सपूर्वपक्ष प्रतिषेध दिखाया है, अतः उस का पुनरावर्त्तन यहाँ नहीं किया जाता ।
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