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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ पराऽपरादिज्ञानम् तदादित्यादिक्रिया-द्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनम् तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्, घटादिप्रत्ययवत् । योऽस्य हेतुः स पारिशेष्यात् कालः । यतो न तावत् पराऽपरादिप्रत्ययः दिग्देशकृतोऽयम्, स्थविरेऽपरदिग्विभागावस्थितेऽपि 'परोऽयम्' इति प्रत्ययोत्पत्तेः । तथा यूनि परदिग्भावावस्थितेऽपि 'अपरोऽयम्' इति ज्ञानप्रादुर्भावात् । न च वलीपलितादिकृतोऽयं प्रत्ययः, तत्कृतप्रत्ययवैलक्षण्येनोत्पत्तेः । नापि क्रियानिर्वर्तितः, तत्प्रतिभावितज्ञानवैलक्षण्येन संवेदनात् । तथा च सूत्रम् 'अपरस्मिन् परं युगपद् अयुगपत् चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि' (वैशे० द० २-२-६) इति । आकाशवदेवास्यापि विभुत्वनित्यत्वैकत्वादयो धर्मा अवगन्तव्याः । दिगपि एकादिधर्मोपेतं द्रव्यं प्रमाणतः सिद्धम् । तथाहि - मूर्तेष्वेव द्रव्येषु मूर्तं द्रव्यमवधि कृत्वा 'इदमस्मात् पूर्वेण, दक्षिणेन, पश्चिमेनोत्तरेण, पूर्वदक्षिणेन, दक्षिणापरेणापरोत्तरेणोत्तरपूर्वेणाधस्ता- परत्व और अपरत्व का व्यवहार, समसामयिक और विषमसामयिक घटनाएँ, विलम्ब और शीघ्रता की प्रतीति ये सब लिंग है । स्पष्टता - पिता बडा और बेटा छोटा, यानी इन में पूर्वापर क्रम होता है वह काल के बिना अशक्य है । कभी कोई दो घटना एकसाथ कहीं होती हैं, कभी पूर्वापर क्रम से होती है । कभी कोई कार्य होने में बहुत विलम्ब होता है तो कभी शीघ्र कार्यसिद्धि होती है । यह कार्य कल हो गया, वह तो दो दिन के बाद होगा । इस प्रकार के व्यवहारों में जो किसी के बारे में पूर्वता का और अन्य के विषय में पाश्चात्त्यभाव का बोध होता है वह किसी ऐसे पदार्थ के प्रभाव से होता है जो न तो सूर्य आदि की क्रियारूप है, न तो द्रव्य यानी शरीर पर बुढापे में होनेवाले वली-पलित या कटीवक्रता आदि रूप है, किन्तु उन से अतिरिक्त ही है जिस को 'काल' संज्ञा दी गयी है, क्योंकि सूर्यक्रियादि की प्रतीति और यह पूर्व-पश्चाद्भाव की प्रतीति बहुत विलक्षण है, जैसे घटादि की प्रतीति । इस प्रतीति का जो मूलाधार है वही परिशेषन्याय से 'काल' कहा जाता है ।। * काल के विना पूर्व-पश्चादभावप्रतीति अशक्य * यदि कहें कि 'यह पूर्व-पश्चात् की प्रतीति दिशाओं के विभाग से होती है' तो वह अनुचित है, क्योंकि वृद्ध पुरुष पश्चिम दिशा के विभाग में बैठा हो तो भी उस के विषय में 'यह पूर्व (बडा) है' ऐसी प्रतीति सभी को होती है और युवान पुरुष पूर्वदिशा के विभाग में बैठा हो तो भी ‘यह पश्चिम (छोटा) है' इस प्रकार से बोध होता है । वली-पलितादि से पूर्व-पश्चात् की प्रतीति का होना सम्भव नहीं है, क्योंकि दो बूढे व्यक्ति में समानरूप से वली-पलित आदि देखने पर भी पूर्व-पश्चात् की प्रतीति विलक्षण ही होती है । सूर्य आदि की क्रिया से प्रभावित, यानी जन्म लेनेवाला ज्ञान और पूर्वपश्चात्भाव की प्रतीति, दोनों में संवेदन विलक्षण होता है । वैशेषिकसूत्र (२-२-६) में कहा है कि - "अपर में पर (बुद्धि), समसामयिकता - विषमसामयिकता, विलम्ब-त्वरा ये सब काल के लिंग हैं ।" __ आकाश में जैसे एकत्व-व्यापकत्व-नित्यत्व द्रव्यरूपत्व इत्यादि धर्म पहले दिखाये हैं वैसे काल में भी ये सब धर्म समझ लेना । * दश प्रतीतियों से दिग्द्रव्य की स्थापना * 'दिशा' एक स्वतन्त्र एकत्वादिधर्मवाला द्रव्य है यह प्रमाणसिद्ध तथ्य है । देखिये - एक मूर्त्त द्रव्य का सीमांकन कर के अन्य मूर्त द्रव्यों का स्थान ज्ञात करने के लिये ऐसी दश प्रतीतियाँ होती है - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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