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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ग्राह्यत्वाच, बुद्ध्यादीनामात्मगुणानां तद्वैपरीत्योपलब्धेः । न दिक्-काल-मनसाम् श्रोत्रग्राह्यत्वात् । अतः पारिशेष्याद् गुणो भूत्वाऽऽकाशस्य लिङ्गम् । आकाशं च शब्दलिंगाऽविशेषात् विशेषलिंगाभावाच्च एकम् विभु च सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् समवायित्वे सत्यनाश्रितत्वाच्च द्रव्यम्, अकृतकत्वानित्यम् । ___ पराऽपरव्यतिकर-योगपद्याऽयौगपद्य-चिर/क्षिप्रप्रत्ययलिंगः कालो द्रव्यान्तरम् । तथाहि - परः पिता अपरः पुत्रः । युगपत् अयुगपत् वा, तथा चिरम् क्षिप्रम् वा कृतं करिष्यते वा इति यत् आदिगुणत्व का विरह रूप साध्य न रहने से व्यभिचार दोष की सम्भावना है, किन्तु 'प्रत्यक्षग्राह्यत्व' विशेषणसहित हेतु करने से दोष नहीं होगा, क्योंकि परमाणु के रूपादिगुण प्रत्यक्ष नहीं होते । (यद्यपि उन के मत में ईश्वरप्रत्यक्ष होने से, अब भी वह दोष तदवस्थ रहता है किन्तु 'इन्द्रियग्राह्यत्वे सति' ऐसे विशेषण में तात्पर्य समझना चाहिये, फिर वह दोष नहीं रहेगा ।)
* शब्द पृथ्वीआदि अन्य द्रव्यों का गुण नहीं है * शब्द में पृथ्वी आदि चार के गुणत्व का निषेध करने के लिये 'अयावद्र्व्यभावित्व' अथवा 'भेरी आदि आश्रय से अन्यत्र उपलब्धि' इत्यादि और भी कई हेतु कहे जा सकते हैं । रूपादि गुण अपने आश्रयभूत द्रव्य में यावद्र्व्य रहते हैं जब कि शब्द तो उत्पन्न हो कर त्वरा से नष्ट हो जाता है इस लिये वह पृथ्वी आदि चार का गुण नहीं हो सकता । तथा, संभवित भेरी-तबला आदि आश्रय से वह उत्पन्न होता है किन्तु दूर दूर पर्वत की गुफा में भी वह सुनाई देता है, पृथ्वी आदि चार के गुण ऐसे नहीं होते । स्पर्श के आश्रयभूत जो पृथ्वी आदि चार हैं उन के गुण यावद्र्व्यभावी होते हैं और उनके आश्रय में ही उपलब्ध होते हैं अतः शब्द से विपरीत -विलक्षण ही है, यानी शब्द पृथ्वी आदि चार के गुणों से विलक्षण ही गुण है ।
शब्द आत्मा का गुण नहीं हो सकता, क्योंकि 'मैं शब्दवाला हूँ' इस प्रकार उस का अहंकार से अविभक्त रूप में ग्रहण नहीं होता किन्तु अहंकार (अहंत्व) से विभक्त (=व्यधिकरण) स्वरूप में ही उसका ग्रहण होता है । शब्द बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष है इस लिये भी वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता । तथा एक ही शब्द अन्य जीवों से भी प्रत्यक्षगृहीत होता है इस लिये भी वह जीव का गुण नहीं हो सकता । कारण, आत्मा के जो बुद्धि आदि गुण हैं वे शब्द से विपरीत ही हैं, यानी न तो बुद्धि आदि बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष है, न एक आत्मा के गुण दूसरे आत्मा को इन्द्रियग्राह्य होते हैं।
शब्द दिक्-काल और मन का गुण भी नहीं हो सकता, क्योंकि श्रोत्रग्राह्य है, दिक् आदि तीन का एक भी गुण श्रोत्रग्राह्य नहीं है ।
[ प्रकार पथ्वी आदि आठ में से एक भी द्रव्य का जो गण नहीं है वह गण होने से किसी द्रव्य का आश्रित तो होना ही चाहिये, अतः उस के आश्रय द्रव्य के रूप में परिशेष न्याय से आकाश सिद्ध हो जाता है ।
आकाश का विशेष तो कोई लिंग नहीं है, शब्दरूप सामान्य लिंग है इस लिये उस को 'एक' मात्र द्रव्य रूप मानने में कोई आपत्ति नहीं है । तथा उस का शब्द गुण कोने कोने में सर्वत्र उपलब्ध होता है इस लिये वह 'एक' हो कर भी विश्वव्यापक सिद्ध होता है । वह शब्दगुण का समवायी कारण है तथा स्वयं अनाश्रित है इस लिये 'द्रव्य' रूप सिद्ध होता है, एवं उस में कृतकत्व न होने से वह नित्य सिद्ध होता है ।
* परत्वादिलिंगक कालद्रव्य की स्थापना * न्याय-वैशेषिक मत में काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है । उस की अनुमिति के लिये बहुत से लिंग हैं -
इस प्र
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