________________
पञ्चमः खण्डः - का० ४९ एव । न चेयमुपचरिता, अस्खलद्वृत्तित्वाद् । न च शब्दप्रवृत्त्यनुपपत्तिमात्रप्रेरणया वस्त्वर्थस्य प्रतिषेधः शक्यो विधातुम्, तत्र तच्छब्दाऽप्रवृत्तावपि व्याप्त्यव्याप्तिशब्दयोः प्रवृत्त्युपपत्तेः । तथाहि – 'अवयवी अवयवेषु वर्त्तमानः प्रत्यवयवं किं व्याप्त्या वर्त्तते उताऽव्याप्त्या ?' इत्येवं विवक्षितार्थाभिधाने न कंचिद् दोषमुत्पश्यामः । तन्न नित्यानित्यरूपपृथिव्यादिचतुःसंख्यं द्रव्यमुपपत्तिमत् ।।
आकाशाख्यैकनित्यद्रव्यप्रसिद्धये शब्दं गुणत्वाल्लिङ्गत्वेन प्रतिपादयन्ति । तथा च परेषां प्रयोगः - ये विनाशित्वोत्पत्तिमत्त्वादिधर्माध्यासिताः ते क्वचिदाश्रिता यथा घटादयः, तथा च शब्दाः तस्मादेभिराश्रितैः क्वचिद् भवितव्यम्, यश्चैषामाश्रयः स पारिशेष्यादाकाशः । तथाहि - नायं शब्दः पृथ्व्यादीनां वायुपर्यन्तानां गुणः, अध्यक्षग्राह्यत्वे सत्यकारणगुणपूर्वकत्वात् । ये तु पृथिव्यादीनां चतुर्णां गुणास्ते बाह्येन्द्रियाध्यक्षत्वे सति अकारणगुणपूर्वका न भवन्ति यथा रूपादयः, न च तथा शब्दः । एवं 'अयावद्र्व्यभावित्वात्' 'आश्रयाद् भेर्यादेरन्यत्रोपलब्धेश्च' इत्यादयो हेतवो द्रष्टव्याः । स्पर्शवतां यथोक्तविपरीता गुणा उपलब्धाः । 'प्रत्यक्षत्वे सति' इति च विशेषणं परमाणुगतैः पाकजैः अनेकान्तिकत्वं मा भूद् इत्युपात्तम् । न चात्मगुणोऽहंकारेण विभक्तग्रहणात् बाह्येन्द्रियाध्यक्षत्वात् आत्मान्तरवाले शब्दप्रयोग हैं' - ऐसा कहना गलत है, क्योंकि यह कोई स्खलवृत्ति यानी बाधित शब्दप्रयोग नहीं है। दूसरी बात यह है कि सिर्फ शब्दप्रयोग की असंगति दिखा कर के, उस शब्दप्रयोग से वक्ता जिस तथ्य का प्रतिपादन करना चाहता है उस तथ्य का निषेध तो कभी नहीं हो सकता । किसीने अश्व के लिये उस का हुबहु अंगोपांग आदि का वर्णन करते हुए 'बैल' शब्द का प्रयोग कर दिया, तो उस प्रयोग की असंगति दीखा देने मात्र से उसने जिस अश्व को देखा है उस का तो निषेध नहीं हो सकता । यदि अवयवी के लिये 'सम्पूर्ण या एकदेश-वृत्ति' शब्दों का प्रयोग न करे, तो भी व्याप्ति-अव्याप्ति शब्दों के प्रयोग से भी हमारी बात को हम बता सकते हैं । जैसे देखिये - अवयवों में रहनेवाला अवयवी क्या व्याप्ति से (यानी व्यापकरूप से) रहता है या अव्याप्ति से (यानी अव्यापक हो कर) रहता है ? इस प्रकार विवक्षित अर्थ के प्रतिपादन में यानी अवयवी में प्रसंगसाधन करने में कोई दोष नहीं है ।
निष्कर्ष :- नित्यस्वरूप परमाणु आदि और अनित्य स्वरूप अवयवी ये दो प्रकार के पृथ्वी आदि चार द्रव्यों का युक्ति के साथ मेल नहीं बैठता ।
* शब्दगुण के आश्रयरूप में आकाश की सिद्धि * ___न्याय-वैशेषिक मतवादी 'शब्द' गुण होने का प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि उस को लिंग बना कर उस के आश्रय के रूप में एक नित्य आकाशसंज्ञक द्रव्य की वे सिद्धि चाहते हैं । उन की ओर से यह प्रयोग है -- विनाशित्व-उत्पत्तिशीलता आदि धर्मों से जो ग्रस्त रहते हैं वे किसी के आश्रित होते हैं जैसे घट-वस्त्रादि । शब्द (ध्वनि) भी उत्पत्ति-विनाशशील है, अतः सभी ध्वनियाँ किसी की आश्रित होनी चाहिये । इस प्रयोग से जो शब्द का आश्रय सिद्ध होता है वह परिशेषन्याय से आकाश ही है । देखिये - शब्द किसी भी पृथ्वीजल-तेज-वायु इन चार में से एक का भी गुण नहीं है क्योंकि वह प्रत्यक्षग्राह्य है किन्तु कारणगुणपूर्वक नहीं है। पृथ्वी आदि चार द्रव्यों के सभी गुण बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष होते हैं और कारणगुणपूर्वक ही होते हैं। कारणगुणपूर्वक यानी अवयवों के गुण से अवयवी में जिन गुणों की उत्पत्ति होती है वे रूपादि गुण । शब्द कारणगुणपूर्वक नहीं है इस लिये पृथ्वी आदि चार का गुण नहीं हो सकता । यहाँ पहले हेतु में 'प्रत्यक्षग्राह्यत्व' अंश अगर न रखा जाय तो पृथ्वीआदि के परमाणुवों में पाकजन्य रूपादि में अकारणगुणपूर्वकत्व हेतु के होने पर भी पृथ्वी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org