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________________ १०८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् एव – कथं न व्याप्तिसिद्धिर्येनात्र प्रसंगसाधनस्यावकाशो न स्यात् ? निरस्ता च प्रागेवानेकस्मिन्नेकस्य वृत्तिर्न पुनः प्रतिपाद्यते । यच्चाध्यक्षत एव वृत्तिः सिद्धा 'इह इदम्' इत्यक्षानुसारिबुद्ध्युत्पत्तेः, तदप्यसंगतम् यतो न 'इह तन्तुषु पटः' इति विकल्पिकाऽपि लोके बुद्धिः प्रवर्त्तते । किं तर्हि ? 'पटे तन्तवः' इति । न चाध्यक्षे तन्तुसमवेतं व्यतिरिक्तं पटादिद्रव्यमवभासते । न च विवेकेनाऽप्रतिभासमानस्य ‘इह इदं वर्त्तते' इति बुद्धिविषयता । न हि विवेकेनाऽप्रतिभासमाने कुण्डादौ बदरादिके 'इह कुण्डे बदराणि' इति प्रत्ययः प्रादुर्भवति ।। ___यदपि 'कात्स्न्यैकदेशाभ्यां वृत्तिर्न क्वचिदुपलक्षिता' इति तदप्यसंगतम्, बदरादेः कुण्डादौ सर्वात्मना, वंशादेरेकदेशेन स्तम्भादौ वृत्तेरुपलक्षणात् । यदपि उक्तमुद्द्योतकरेण 'एकस्मिन् अवयविनि कृत्स्नैकदेशशब्दप्रवृत्त्यसंभवात् अयुक्तोऽयं प्रश्नः - किमेकदेशेन वर्त्तते अथ कृत्स्नो वर्त्तते इति । कृत्स्नम् इति हि खल्वेकस्याशेषस्याभिधानम् ‘एकदेशः' इति चानेकत्वे सति कस्यचिदभिधानम् ताविमौ कृत्स्नैकदेशशब्दावेकस्मिन्नवयविन्यनुपपन्नौ (२-१-३२ न्यायवा०) इति, तदपि प्रत्युक्तं प्राक्तनन्यायेनैव । तथा च कृत्स्नः पटः कुण्डे वर्त्तते एकदेशेन वा इत्येवं पटादिषु कृत्स्नैकदेशशब्दप्रवृत्तिर्दृश्यत किसी एक अधिकरण में एक देश से रहता है, उदा० अनेक खंड खंड काष्ठफलक पर सोया हुआ चैत्र आदि । जहाँ इन में से एक भी प्रकार से वृत्ति नहीं होती वहाँ वृत्ति का सर्वथा अभाव होना चाहिये । इस प्रकार जब नियम सिद्ध होता है तब प्रसंगसाधन को अवकाश क्यों नहीं मिलेगा ? ! एक भाव की अनेक में वृत्ति पूर्वोक्त दो विकल्पों में से एक से भी घटती नहीं, इसलिये वह सम्भव ही नहीं है - यह पहले ही बता दिया है इसलिये पुनः उस का प्रतिपादन क्यों करना ?! यह जो कहा गया कि – वृत्ति तो वहाँ प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है, क्योंकि 'यहाँ तन्तुओं में यह वस्त्र है' ऐसी इन्द्रियजन्य बुद्धि सभी को होती है - वह कथन असंगत है, क्योंकि प्रत्यक्ष में कभी 'तन्तुओं में वस्त्र है' ऐसी विकल्पबुद्धि प्रवृत्त नहीं होती, उलट में 'वस्त्र में तन्तु हैं' बुद्धि होती है । दूसरी बात यह है कि 'तन्तुओं में समवेत किन्तु तन्तु से अतिरिक्त्त' ऐसे वस्त्रादि द्रव्य का प्रत्यक्ष में भान नहीं होता । जो पृथकरूप से भासित न हो उस के बारे में 'वह यहाँ है' ऐसी भेदबुद्धिविषयता का होना शक्य नहीं है । कुण्डादि में भी अगर पृथक् रूप से बेर का भान न होता तो 'यहाँ कुण्ड में बेर हैं' ऐसी प्रतीति कभी उदीत नहीं हो पाती । * कृत्स्न - एकदेश विकल्पयुगल का औचित्य * यह जो अवयवीवादी ने कहा है कि 'सम्पूर्णतया अथवा एकदेश से कहीं भी वृत्ति उपलब्ध नहीं है' यह नितान्त गलत है क्योंकि कुण्ड में बेर का सम्पूर्णतया समावेश होता है, स्तम्भ के ऊपर तीरछा रखा गया बाँस एक देश से स्तम्भ पर वृत्ति होता है, यह सभी को मान्य है । उद्द्योतकरने जो कहा है कि - "एकव्यक्तिरूप अवयवी के बारे में किये जाने वाले प्रश्न में सम्पूर्ण और एकदेश से शब्दों का प्रयोग सम्भवोचित ही नहीं है, अतः यह प्रश्न भी अनुचित है कि क्या वह एक देश से रहता है या सम्पूर्णतया रहता है ?' 'सम्पूर्ण' यह शब्द एक के बारे में अशेष (= जिस में कोई बाकी नहीं रहा) का अभिधायी है, तथा एकदेश शब्द अनेक में से किसी एक का अभिधायी है । ये दोनों ही 'सम्पूर्ण-एकदेश' शब्द एक अवयवी के बारे में असंगत है।' – उद्द्योतकर के न्यायवार्त्तिक के इस कथन का पूर्वोक्तयुक्ति से प्रत्याख्यान हो जाता है । सम्पूर्ण-एकदेश शब्दयुगल की प्रवृत्ति तो वस्त्रादि अवयवी के लिये स्पष्ट उपलब्ध होती है, जैसे 'सम्पूर्ण वस्त्र जलकुंड में समाविष्ट है, तथा । 'एक भाग से वस्त्र जलकुंड में रखा गया है' – इत्यादि । 'ये तो गौण यानी उपचार से होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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