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पञ्चमः खण्डः - का० ४९
११३ मनोद्रव्यस्य तु युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्लिङ्गम् । तथा च सूत्रम् – 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' (न्याय द० १-१-१६) इति । अनेकेन्द्रियार्थसंनिधाने सत्यपि एकदा, क्रमेण ज्ञानोत्पत्त्युपलम्भादनुमीयत इन्द्रियार्थव्यतिरेकं हेत्वन्तरमस्ति इति यत्संनिधानाऽसंनिधानाभ्यां ज्ञानस्योत्पत्त्यनुत्पत्ती भवतः । तथा च प्रयोगः – रूपाद्युपलब्धिः आत्मबाह्येन्द्रियार्थव्यतिरिक्तहेत्वन्तरापेक्षा, क्रमेणोपजायमानत्वात् रथादिवत् ।
अत्र प्रतिविधीयते - यदि सामान्येनाश्रितत्वमानं शब्दानां साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, तेषां भूतकार्यतया तदाश्रितत्वात्, कार्यस्य कारणप्रतिबद्धात्मलाभतया तदाश्रितत्वाभ्युपगमात् । अथ एकनित्याऽमूर्त्त-विभुद्रव्यसमवेतत्वेनैषामाश्रितत्वं साध्यते तदा तथाभूतसाध्यान्वितत्वस्य दृष्टान्ते हेतोरभावात् अनैकान्तिकता हेतोः, प्रतिज्ञायाश्चानुमानविरोधित्वम् । तथाहि - यदि नित्यैकव्यापि-नभोद्रव्यसमवेताः शब्दा भवेयुस्तदैकदोत्पन्नानेकशब्दवद् अन्यकाला अपि ते तदैव स्युः अविकलकारणत्वात् एकाश्रयत्वाच्च । न च सहकार्यपेक्षा नित्यस्य सम्भवति इति प्रतिपादितम् । नापि समवायित्वमनुपकारिणो युक्तमतिप्रसङ्गात् । ततोऽक्रमभावित्वप्रसङ्गो व्यवस्थितः । तत्कारणस्य नित्यत्वे व्या
* मनोद्रव्य की स्थापना * मनस् एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है । पाँच पाँच इन्द्रिय होने पर भी एक साथ पाँच इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न नहीं होते यही लिङ्ग है जो मन द्रव्य को सिद्ध करता है । न्यायदर्शन का यह सूत्र है -- ‘एक साथ अनेक ज्ञानों की अनुत्पत्ति यह मन का लिङ्ग है ।' श्रोत्र-चक्षु आदि अनेकेन्द्रियों के साथ अपने अपने विषयों का एक साथ सम्पर्क हो जाने पर भी, क्रमशः शब्दज्ञान, रूपज्ञान आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं, एक साथ नहीं होते । इस तथ्य से यह अनुमान किया जा सकता है कि इन्द्रिय और विषय के अलावा और भी कोई (मन जैसा) हेतु है जिस के साथ इन्द्रियसम्पर्क रहने पर ज्ञान होता है और उस के न रहने पर नहीं होता ।।
इस प्रकार अनुमानप्रयोग देख सकते हैं -- रूपादि विषय का उपलम्भ, आत्मा-बाह्येन्द्रिय एवं विषय की त्रिपुटी से भी अतिरिक्त किसी हेतु से सापेक्ष है, क्योंकि क्रमशः उत्पन्न होते हैं । जैसे रथादि के एक एक विभाग को मिला कर क्रमशः रथ उत्पन्न किया जाता है और तब आत्मा, बाह्येन्द्रिय और विषय से अतिरिक्त हथोडा आदि साधनों की भी अपेक्षा होती है । प्रस्तुत में क्रमशः ज्ञानोत्पत्ति के लिये भी जो अतिरिक्त हेतु अपेक्षित है वही मन है ।
* प्रतिविधान प्रारम्भ - आकाशानुमान में दूषण * आकाशादि को स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध करने के लिये जो यह सब कहा गया है वह गलत है । शब्द में आश्रितत्व की कथा में दो विकल्प प्रश्न हैं -- १ सामान्यतया सिर्फ आश्रितत्व ही सिद्ध करना है तो वह सिद्धसाधन मात्र है । कारण, शब्द भूत(=पुद्गल) का कार्य होने से भूत का आश्रित होना हमें भी मान्य है । जो कार्य होता है वह किसी एक उपादानकारण से सम्बद्ध हो कर ही स्वभावलाभ करता है इस आधार पर हम मानते हैं कि शब्द भूतकार्य होने से भूताश्रित ही हो सकता है । दूसरे विकल्प में यदि एक-नित्य-अमूर्त्त-विभुद्रव्य में समवेत हो ऐसे विशेषरूप से यदि शब्द में आश्रितत्व सिद्ध करना है तो वैसे साध्य की व्याप्ति घटादि दृष्टान्तगत हेतु में न होने से उत्पत्तिविनाशशीलता हेतु साध्यद्रोही बन जायेगा । दूसरा दोष प्रतिज्ञा में अनुमानबाधा है, वह इस प्रकार - शब्द यदि एक-नित्य-व्यापक आकाशद्रव्य में समवाय से आश्रित होगा तो जैसे
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