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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ व्यतिरेके सप्तमपदार्थप्रसक्तेायप्राप्तत्वात् । किंच, यदि षण्णां पदार्थानामर्थक्रियासमर्थपदार्थस्वरूपं स्वतत्त्वं न स्यात् तदा शशशृंगरूपता तेषां भवेत् अर्थक्रियाऽसामर्थ्यात्, ततश्च कथं सदुपलम्भकप्रमाणगम्यता तेषाम् ? अथ अर्थक्रियासमर्थं रूपं तेषां विद्यते; त(?य)दा ते तद्रूपा एव भेदान्तप्रतिक्षेपमात्रजिज्ञासायां 'तेषामस्तित्वम्' इत्येवं यदि व्यपदेशं व्यतिरेकविभक्त्या समासादयन्ति - तदा न कश्चिद् विरोधः । न हि तदव्यतिरिक्तमपि स्वरूपं बुद्ध्याऽपकृष्य ततो व्यतिरिक्तमिव अभिधीयमानं विरोधभाग् भवति, इच्छामात्रानुविधायित्वाद् वाच उत्पाद्यकथाश्रयातिसुन्दरपदार्थवचनवत् । ___भिन्नकर्तृकत्वाद्यनुमानमपि असंगतम्, यतो यदि अप्राप्तपटव्यपदेशेभ्यस्तन्तुभ्यः प्राक्तनावस्थेभ्यो भेदः पटस्यात्र साध्यते तदा सिद्धसाध्यताप्रसक्तिः सर्वभावानां क्षणिकत्वेन तद्विलक्षणपटाख्यपदार्थामें किया हुआ है ।" - तो ऐसा कहनेवाला यथार्थवादी नहीं है । कारण, इस ढंग के प्रतिपादन से अगर यह सिद्ध हो जाय कि अस्तित्व अतिरिक्त नहीं है, तो वस्तुगत भेद न होने पर भी षष्ठीप्रयोग होने से व्यभिचार दोष तदवस्थ रहेगा । यदि अस्तित्व को अतिरिक्त मानेंगे तो छः से अतिरिक्त यानी सातवे पदार्थ का आदर करने के लिये बाध्य होना पडेगा क्योंकि आप के मतानुसार वहाँ षष्ठी के अनुसार वस्तुगतभेद सिद्ध होने के कारण सातवा पदार्थ न्यायप्राप्त हो जाता है । * भेदान्तप्रतिक्षेप के लिये षष्ठीविभक्ति * तदुपरांत, दूसरी बात यह है कि पदार्थों के अस्तित्व को ज्ञानमय घोषित करने पर यह फलित होगा कि छ पदार्थों का स्वतत्त्व यानी अपना स्वरूप अर्थक्रियासमर्थपदार्थत्व रूप नहीं है; फलतः उन में शशसींगतुल्य असत्त्व प्रसक्त हुये विना नहीं रहेगा, क्योंकि उन में अर्थक्रिया के लिये जरूरी सामर्थ्य नहीं है । तब फिर वे छ पदार्थ जब सत् भी नहीं हैं तब ‘सद्' उपलम्भ करानेवाले प्रमाण से गम्य भी कैसे रहेंगे ? यदि कहें “उन में अर्थक्रियासामर्थ्य तो है ही, जब वे अर्थक्रियासमर्थरूप होते हुए ही अन्यप्रकारता (यानी छ से अधिकता) के निषेधमात्र की जिज्ञासा होने पर 'छः का अस्तित्व' इस प्रकार व्यतिरेकसूचक विभक्ति के प्रयोग से निर्देश प्राप्त करते हैं" - तो उस में कोई विरोध नहीं है । मतलब यह है कि पदार्थ के अव्यतिरिक्त स्वरूप को (यानी अस्तित्व को) सिर्फ बुद्धि से अलग कर के 'मानों कि अलग ही हो' इस ढंग से षष्ठीप्रयोग से निर्दिष्ट किया जाता है तो प्रतिवादी को कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वचनप्रयोग इच्छामात्रप्रेरित होते हैं यह हम पहले ही कह आये हैं । इच्छावचन वास्तविकता से सम्बद्ध हो यह आवश्यक नहीं है। कोई नयी कथा बनायी जाय तो उस में कथा का जो मुख्य आश्रय यानी नायक कोई चक्रवर्ती है, उस के लिये ‘अतिसुंदर' नामात्मक पदार्थ की कल्पना की जाती है, जिस को वास्तविकता के साथ सम्बन्ध नहीं होता, वैसे यहाँ भी अस्तित्व का काल्पनिक भेद किया जाय तो कोई विपदा नहीं है । वस्तुगत भेद न होने पर भी षष्ठीप्रयोग हो सकता है अतः षष्ठीप्रयोग से गुण-गुणीभेद की सिद्धि असम्भव हो जाती है । * अवयवीभेदसाधक भिन्नकर्तृकत्वादिअनुमान निरर्थक * पहले जो अवयवीभेद सिद्ध करने के लिये भिन्नकर्तृकत्वादि हेतु से अनुमानप्रयोग कहा गया है - तन्तु के कर्ता से वस्त्र का कर्ता भिन्न है अतः वस्त्र तन्तु से भिन्न है... इत्यादि, वह भी अयुक्त्त है । कारण, यदि 'वस्त्र' संज्ञा को प्राप्त न हुए पूर्वकालीन अवस्था में तन्तुओं में अगर वस्त्रभेद सिद्ध करने की मनीषा हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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