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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नुत्पादेऽपि प्रतिक्षणं भिन्नत्वात् । अथ पटावस्थायां ये तन्तवस्तेभ्यः पटस्य भेदः साध्यस्तदा हेतुनामसिद्धता, न हि तदवस्थाभावितन्तुभ्यः पटस्य भेदा प्रसिद्धौ भिन्नकर्तृकत्वादयो धर्माः सिद्धिमासादयन्ति । न च तत्सिद्धिः, इदानीमेव तत्सिद्धये साधनस्योपन्यासात् । न च 'तन्तवः ‘पटः' इति च संज्ञामात्रात् पदार्थानां भेदसिद्धिः, संज्ञान्तरस्य प्रयोजनान्तरवशेनापि संकेतनात् । तथाहि - योषित्कर्तृकास्तन्तवः शीतापनोदाद्यर्थाऽसमर्थाः तन्तुशब्दसमावेशभाजः, कुविन्दकर्तृका विशिष्टावस्थाप्राप्ताः प्रावरणाद्यर्थक्रियासमर्थाः पटव्यपदेशसमावेशिनस्तदर्थक्रियाप्रतिपादनाय व्यवहारिभिस्तथा तत्र संकेतकरणात् अन्यथा गौरवाऽशक्ति-वैफल्यदोषप्रसङ्गात् । तथाहि – यदि यावन्तो भावा विवक्षितैककार्यनिर्वर्तनसमर्थास्तेषु तावन्तः शब्दा निवेश्यन्ते तदा गौरवदोषः, न चैषामसाधारणं रूपं निर्देष्टुं शक्यमिति अशक्तिदोषः, उत्प्रेक्षितसामान्याकारेण निर्देशे वरं 'पटः' इत्येकयैव श्रुत्या प्रतिपादनं कृतम् न च किंचित् फलमस्य प्रत्येकं पृथगभिधानप्रयासस्य पश्याम इति वैफल्यदोषः । सामस्त्येन त्वभिधाने सति व्यवहारलाघवादिर्गुण इत्येकार्थक्रियाकारिषु अनेकेषु एकशब्दसंकेत उपपन्नः सकलवस्तुविवक्षायां जगत्-त्रिभुवनतो सिद्धसाध्यता दोष है क्योंकि उस अवस्था में हम भी वस्त्रभेद स्वीकारते हैं। वास्तव में, (ऋजुसूत्रनय का अवलम्बन कर के देखा जाय तो) सभी पदार्थ क्षणभंगुर हैं, अतः तन्तुओं से विलक्षण वस्त्रसंज्ञक पदार्थ उत्पन्न न होने के समय भी क्षण-क्षण में तन्तु भिन्न भिन्न ही हैं अतः उस काल में वस्त्रभेद तो सुतरां मान्य है। यदि कहा जाय - वस्त्रावस्था काल में जो तन्तु हैं उन से वस्त्र भिन्न है यह उस अनुमानप्रयोग का साध्य है - तो कहना पडेगा कि भिन्नकर्तृकत्वादि हेतु वहाँ असिद्ध है । वस्त्रावस्थाकाल में रहे हुए तन्तुओं से उस वस्त्र का और तन्तुओं का कर्ता भिन्न है इत्यादि कैसे आप सिद्ध कर पायेंगे ? यदि कहें कि - उस भेद को ही हम पहले सिद्ध कर लेंगे तो यह ठीक नहीं क्योंकि आप तो अभी भिन्नकर्तृकत्व हेतु से उसकी सिद्धि का प्रयास कर रहे हैं, किन्तु उसके पहले भेद असिद्ध होने के कारण भिन्नकर्तृकत्व हेतु ही असिद्ध है, वह कैसे वस्त्रभेद सिद्ध कर पायेगा । 'तन्तु' और 'वस्त्र' ये संज्ञा भिन्न है उसका मतलब यह नहीं कि उन दोनों के अर्थ में भी भेद है, अलग अलग प्रयोजन के वश अलग अलग संज्ञा की जाती है। देखिये - महिलाओं ने बनाये हुए तन्तु, प्रावरण के द्वारा सर्दी को दूर करने के लिये समर्थ नहीं होते, अत: उनको सिर्फ तन्तु संज्ञा दी जाती है, जब कि बुननेवाले ने विशिष्टसंयोजन से बनाये हुए तन्तु एक ऐसी विशिष्ट अवस्था को प्राप्त करते हैं जिस से वे प्रावरण आदि क्रिया करने के समर्थ बन जाते हैं (संस्कृत में वस्त्र के लिये ‘पट' शब्द प्रयुक्त होता है, उस का अर्थ होता है अंगादि का आच्छादन करनेवाला) । और तब उन के लिये 'पट' संज्ञा का प्रयोग किया जाता है । प्रावरण आदि अर्थक्रिया का निरूपण करने के लिये व्यवहारी लोगों ने तन्तुओं का ‘पट' ऐसा संकेत किया होता है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो गौरव, अशक्ति और विफलता ये दोष प्रसक्त्त होंगे । गौरवादि दोष :- अभिलषित एक कार्य के उत्पादन में जितने पदार्थ समर्थ होते हैं उन सभी के लिये व्यक्तिगत एक-एक शब्द जोडा जाय तो गौरव दोष प्रसक्त्त होगा । अलग अलग शब्दयोजना करने पर उनका क्या साधारण स्वरूप है यह निर्देश करना अशक्य हो जाने से अशक्त्ति दोष होगा । यदि उनमें एक साधारण धर्म = सामान्य की कल्पना करके उस साधारणरूप से सभी को संगृहीत निर्देश करने की चेष्टा करेंगे तो उस के बदले ‘पट' ऐसे एक शब्द की ही योजना कर देना अच्छा रहेगा । तब फिर अलग अलग संज्ञा करने के प्रयास का कोई इच्छनीय फल नहीं दिखता, अतः वैफल्यदोष आयेगा । उक्त्त दोषों को टालने के लिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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