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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् " भवतु वा षण्णामस्तित्वं धर्मान्तरम् तथापि व्यभिचार एव तदस्तित्वे अपरास्तित्वाद्यभावेऽपि ‘तदस्तित्वस्य अस्तित्व-प्रमेयत्व - अभिधेयत्वानि' इति षष्ट्यादिप्रवृत्तेः । अथ तत्रापि अपरास्तित्वाभ्युपगमस्तदाऽनवस्थाप्रसक्तिः । न चेष्टत्वाद् अदोषः, सर्वेषामपि उत्तरोत्तरधर्माधारत्वाद् धर्मित्वप्रसक्तेः 'षडेव धर्मिणः प्रोक्ताः' इत्येतस्याऽनुपपत्तिः षट्पदार्थव्यतिरिक्तानामन्येषामपि वा धर्मिणामस्तित्वादीनां विशिष्टधर्माधाराणां सम्भवात् । न च धर्मिरूपा एव ये ते एव षट्केनावधारिता इति वक्तव्यम् गुणादीनामनिर्देशप्रसङ्गात् । न हि गुणादीनां धर्मिरूपतैव किन्तु द्रव्याश्रितत्वात् धर्मरूपत्वमपि । यस्त्वाह - सदुपलम्भकप्रमाणगम्यत्वं षण्णामस्तित्वमभिधीयते तच्च षट्पदार्थविषयं ज्ञानम् तस्मिन् सति ‘सत्’ इति व्यवहारप्रवृत्तेः । एवं 'ज्ञानजनितं ज्ञानज्ञेयत्वम् अभिधानजनितं अभिधेयत्वम्' इत्येवं व्यतिरेकनिबन्धना षष्ठी सिद्धा, न चाऽनवस्था, न च षट्पदार्थव्यतिरिक्तपदार्थान्तरप्रसक्तिः ज्ञानस्य गुणपदार्थेऽन्तर्भावात् । • सोप्ययुक्तवादी, एवमपि अस्तित्वादेः षट्पदार्थाव्यतिरेके व्यभिचारस्य तदवस्थत्वात्, के लिये बाध्य होना पडेगा । 7 — ९४ षट्पदार्थव्यवस्था में विघ्नपरम्परा अथवा, मान लिया कि छः पदार्थों का अस्तित्व एक स्वतन्त्र धर्म है फिर भी व्यभिचार दोष तदवस्थ रहेगा क्योंकि उस ‘अस्तित्व के अस्तित्व, प्रमेयत्व, अभिधेयत्व' इस तरह वस्तुगत भेद के विरह में छट्ठीविभक्ति का प्रयोग आप भी करेंगे । यदि अस्तित्व में नया अस्तित्व धर्म मान लेंगे तो व्यभिचार टल जाने पर भी अनवस्था दोष सिर उठायेगा । अगर कहें 'इष्टापत्ति ! हम उसको दोषरूप नहीं मानते' तो उत्तरोत्तर अस्तित्व धर्म को लेकर पूर्व - पूर्व अस्तित्व को धर्मीरूप मंजुर करना पडेगा क्योंकि वे उत्तरोत्तर धर्म के आधार हैं । फलतः 'ये छः ही धर्मी कहे गये हैं' इस कथन का व्याघात होगा, क्योंकि अब तो छः पदार्थ से अतिरिक्त अन्य भी अस्तित्वादि धर्मी जो कि विशिष्ट धर्मों के आधार हैं, संभव हैं । यदि बचाव करने जाय कि जो धर्म-धर्मीउभयरूप न हो सिर्फ धर्मिरूप हो ऐसे ही छः धर्मी गिनाये गये हैं, अस्तित्वादि तो धर्मधर्मीउभयरूप होने से उन से कोई व्याघात नहीं है - तो यह वाजिब नहीं, क्योंकि तब तो गुण - क्रियादि का भी धर्मीरूप से निर्देश गलत ठहरेगा, क्योंकि गुण - क्रियादि भी अस्तित्वादि के धर्मी हैं किन्तु द्रव्य के धर्म हैं, इस लिये वे केवल धर्मीरूप नहीं हैं । * ज्ञानमय अस्तित्व पक्ष में अयथार्थता * यदि यह कहा जाय " यह सत् है इस प्रकार के उपलम्भ के जनक प्रमाण की गम्यता यही 'छ: का अस्तित्व' इस प्रयोग से सूचित करना अभिप्रेत है, न कि छः भाव के स्वतन्त्र धर्मान्तरभूत अस्तित्व को सूचित करना । तथा यहाँ प्रमाणगम्यता छः पदार्थविषयक ज्ञानमय ही है, उस से अलग नहीं है, क्योंकि ज्ञान होने पर 'सत्' इस प्रकार व्यवहार प्रवृत्त होता है । यह ज्ञातव्य है कि 'ज्ञानजनित ज्ञेयत्व' 'अभिधानजनित अभिधेयत्व' इन प्रयोगों में जैसे ज्ञेयत्व और अभिधेयत्व क्रमशः ज्ञान और अभिधान से भिन्न हैं, इसीलिये भेदमूलक उपरोक्त प्रयोग किया जाता है; वैसे ही ' छ : पदार्थो का अस्तित्व' यहाँ भी भेदमूलक ही षष्ठीविभक्ति का प्रयोग किया जाता है । उपरोक्त प्रयोगों से ही सिद्ध है ज्ञान, अभिधान और छ पदार्थों से क्रमशः ज्ञेयत्व, अभिधेयत्व एवं ज्ञानमय अस्तित्व भिन्न हैं । इस पक्ष में न तो अनवस्था है, न छः से अतिरिक्त पदार्थान्तर का प्रसंग है, क्योंकि प्रमाणगम्यत्वस्वरूप अस्तित्व ज्ञानमय है और उस का समावेश 'गुण' संज्ञक द्वितीय पदार्थ Jain Educationa International ➖➖ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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