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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ हीयते । अथ षट्पदार्थव्यतिरिक्तानामपि धर्माणामभ्युपगमान्नायं दोषः । तथा च पदार्थप्रवेशकग्रन्थे
- ‘एवं धर्मैर्विना धर्मिणामुद्देशः कृतः ।' (प्र. पा. भाष्ये पृ० २६) इति । असदेतत्, तैस्तेषां सम्बन्धानुपपत्तेः तमन्तरेण च धर्म-धर्मिभावायोगात् अन्यथाऽतिप्रसंगात् । न च संयोगलक्षणोऽत्र सम्बन्धः, संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्येष्वेव भावात् । नापि समवायस्वरूपः, सत्तावत् तस्य सर्वत्रैकत्वाभ्युपगमात्, समवायेन च सह समवायसम्बन्धे द्वितीयसमवायाभ्युपगमः स्यात् तत्र चानवस्था। न च षभिः पदार्थैर्धर्माणामुत्पादनात् 'तेषां ते' इति व्यपदेशः, तथाभ्युपगमे बदरादयोऽपि कुण्डादिसम्बन्धिनस्तथैव स्युः इति संयोग-समवायाख्यसम्बन्धान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः । शक्य नहीं है - तो वह गलत है क्योंकि 'स्वस्य भावः' तथा 'छः पदार्थों का अस्तित्व' इत्यादि में भेद के न रहते हुए भी षष्ठी का प्रयोग होता हे । तथा, एक ही पत्नी के लिये भी 'दाराः' तथा एक वालुकण के लिये 'सीकताः' ऐसा बहुवचनप्रयोग बहुत्व के विरह में भी होता है । 'स्व का भाव' इत्यादि प्रयोग में षष्ठीप्रयोग आदि का निमित्त कोई अतिरिक्त भावादि नहीं होता ।
* छः पदार्थ - सिद्धान्त के भंग की विपदा * यदि कहा जाय - 'छः पदार्थों का अस्तित्व' यहाँ ‘यह सत् है' इस प्रकार के उपलम्भ कराने वाले प्रमाण के विषय के रूप में ‘अस्तित्व' को हम स्वतन्त्र धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं, अतः इस स्थल में 'जो जिस से भिन्न प्रतीत होता है' इस हेतु में साध्यद्रोह का सम्भव नहीं है । - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तब छः से अतिरिक्त सातवे पदार्थ को मंजुर करने की आपदा होगी और ‘पदार्थ छः ही हैं' इस सिद्धान्त का भंग हो जायेगा । यदि कहें – धर्मिस्वरूप छः पदार्थों से अतिरिक्त स्वतन्त्र अनेक धर्मों को (धर्मि को नहीं) हम स्वीकारते ही हैं, जैसे कि पदार्थप्रवेशक ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि 'धर्मों को छोड कर (सिर्फ) धर्मियों का उद्देश किया गया है । इस कथन से यह फलित होता है कि धर्मि सिर्फ छः हैं किन्तु उन के धर्म तो बहुत हैं जो उन से अतिरिक्त भी हैं। - तो यह ठीक नहीं है । कारण, धर्मियों के साथ उन अतिरिक्त माने गये धर्मों का कोई रिश्ता (सम्बन्ध) मेल न खाने से 'छः का अस्तित्व' ऐसा षष्ठी-प्रयोग ही शक्य नहीं रहेगा । सम्बन्ध के विना धर्मि-धर्म भाव भी संगत नहीं हो सकता, विना सम्बन्ध के 'धर्म-धर्मी' भाव मंजुर करेंगे तो हिमाचल-विन्ध्याचल आदि में भी वह प्रसक्त होगा । संयोग सम्बन्ध का यहाँ मेल नहीं बैठ सकता, क्योंकि संयोग गुणात्मक माने जाने के कारण वह सिर्फ द्रव्य-द्रव्य के बीच ही हो सकेगा, किन्तु द्रव्य और गुण-जाति इत्यादि के बीच नहीं हो सकेगा । समवायात्मक सम्बन्ध भी नहीं घट सकता, क्योंकि सर्वत्र जैसे सत्ता एक ही मानी जाती है वैसे ही समवाय भी एक ही माना गया है, फलतः पृथ्वी आदि में भी ज्ञान के समवाय की प्रसक्ति होगी । तथा पदार्थों के साथ समवाय का भी अगर अतिरिक्त समवायसम्बन्ध मानेंगे तो दूसरे समवाय की कल्पना करनी होगी, फिर उस के लिये भी नये नये समवाय की कल्पना करनी होगी, इस तरह अनवस्था दोष होगा । यदि कहें कि -- छे पदार्थ अपने अपने धर्मों को उत्पन्न करते हैं अतः धर्मी
और धर्म के बीच 'तदुत्पत्ति' सम्बन्ध होने से ये उस के' इस प्रकार सम्बन्धषष्ठीप्रयोग हो सकेगा - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तब तो 'कुण्ड में बेर' इत्यादि स्थल में भी तदुत्पत्ति सम्बन्ध मान कर उस सम्बन्ध से बेर को कुण्डादिसम्बन्धि मानने का अतिप्रसंग होगा । इस का नतीजा यह होगा कि संयोग और समवाय नाम के सम्बन्ध की कल्पना ही निरर्थक हो जायेगी, क्योंकि सर्वत्र तदुत्पत्ति सम्बन्ध से धर्म-धर्मिभाव मानने
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