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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् श्यामादिरूपतया उपलभ्यन्ते, न च तेषां तद्रूपं तात्त्विकमस्ति, 'तद्रूपाऽग्रहणेऽपि तेषां ग्रहणम्' इत्यभ्युपगमक्षतिप्रसक्तेः। न च तदा श्यामादिरूपाद् व्यतिरिक्तोऽपरः स्फटिकादिस्वभावः उपलभ्यते, श्यामादिरूपस्यैवोपलम्भात् । न च अतद्रूपा अपि बलाकादयः श्यामादिरूपेणोपलभ्यन्ते, यत आकारवशेन प्रतिनियतार्थता ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यते, अन्याकारस्यापि तस्य अन्यार्थतायां रूपज्ञानस्यापि रसविषयताप्रसक्तेः अविशेषात् । न चान्याकारस्य अन्यविषयव्यवस्थापकत्वेऽपि तस्य परस्येष्टसिद्धिः, यतः शुक्लादय एव श्यामादिरूपेण प्रतिभान्ति तज्ज्ञानस्य भ्रान्तत्वात् न पुनस्तद्व्यतिरिक्तस्य गुणिनस्ततः सिद्धिर्भवेत् ।
यच्च कञ्चकावच्छन्ने पुंसि 'पुमान्' इति ज्ञानमध्यक्षम् अवयविव्यवस्थापकम् उक्तम् तदध्यक्षमेव न भवति, शब्दानुविद्धत्वात् अस्पष्टाकारत्वाच्च अपि तु रूपादिसंहतिमात्रलक्षणपुरुषविषयमनुमानमेतत् इति नातोऽवयविसिद्धिः । तथाहि - रूपादिप्रचयात्मकपुरुषहेतुकः कञ्चकसंनिवेशः उपलभ्यमानः
* गुण-गुणीभेदवाद का प्रतिविधान - उत्तरपक्ष * अब एकान्तभेदवाद के प्रतिकार में कहते हैं - वेदवादीने जो यह कहा है कि – ‘अपने में रहे हुए गुण का उपलम्भ न होने पर भी बगुले - स्फटिकादि का दर्शन होता है' - यह बात असंगत है क्योंकि वैसा ज्ञान यथार्थ न होने से भ्रमात्मक होता है और इसी लिये विषयशून्य होता है । स्पष्टता - उस काल में बगुला आदि श्वेत होने पर भी श्याम दिखाई देते हैं, किन्तु उन का वह श्यामादिरूप वास्तविक नहीं होता, यदि उसे वास्तविक माना जाय तो वास्तविक रूप का ग्रहण सिद्ध होने पर 'उन के रूप का ग्रहण नहीं होता फिर भी उन का ग्रहण होता है' इस मान्यता को क्षति पहुँचेगी क्योंकि तब तो वास्तविक श्यामादिरूप का ग्रहण आप को स्वीकार्य प्रसक्त होता है । उस काल में स्पष्ट है कि श्यामादिरूप को छोड कर और कोई श्वेतादिस्वभाव स्फटिकादि का उपलब्ध ही नहीं होता, चूँकि उपलब्ध होता है वह तो श्यामादिरूप ही है जो अवास्तविक है। यदि ऐसा कहें कि 'श्यामादिरूप न होने पर भी श्यामादिरूपेण वहाँ बगले आदि का उपलम्भ होता है' तो ऐसा भी नहीं है । कारण, ज्ञान के आकार के आधार पर 'यह ज्ञान इस विषय का है' इस प्रकार ज्ञान की नियतविषयता की व्यवस्था की जाती है, ज्ञान एक आकार का होने पर भी अगर उस में अपरअर्थ-विषयता मान्य रखी जाय तब तो रूपाकार ज्ञान में रसविषयता का अतिप्रसंग सहज बन जायेगा, क्योंकि आप की मान्यता के अनुसार यहाँ कोई भिन्न स्थिति नहीं है । तथा, कदाचित् मंजुर किया जाय कि एक आकार वाला ज्ञान अपरविषयक हो सकता है, तो भी इस से भेदवादी का कुछ इष्ट सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि जिस ज्ञान में शुक्लादि पदार्थ श्यामादिरूप से भासित होता है वह ज्ञान भ्रान्त है, भ्रान्त होने के कारण ही उस ज्ञान से, गुण से भिन्न गुणी की सिद्धि शक्य नहीं है । तात्पर्य, शुक्ल गुण के अनुपलम्भ में बगुले का दर्शन गुणी को गुण से भिन्न सिद्ध करने में समर्थ नहीं है ।
* अवयवी का प्रतिविधान - उत्तरपक्ष * ___ तदुपरांत, भेद सिद्ध करने हेतु जो यह कहा था – 'पैर से चोटी तक कञ्चक पहने हुए शरीरधारी पुरुष का रूप न दिखाई देने पर 'पुरुष' ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान होता है जिस से अवयवी की सिद्धि शक्य है' – उस के ऊपर विचार कीजिये कि वह ज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता है ? नहीं । कारण, वह ज्ञान एक तो शब्दज्ञानानुविद्ध है, दूसरे, स्पष्टाकार नहीं है । वास्तव में तो वह ज्ञान अनुमानात्मक है जो कि सिर्फ रूपादि-विशिष्ट पुरुषसामान्य को विषय करता है । अतः उस ज्ञान को प्रत्यक्ष समझ कर अवयविसिद्धि की आशा करना व्यर्थ है । स्पष्टता
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