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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ स्वकारणमनुमापयति धूम इवाग्निम् । यच्च-कुङ्कुमादिरक्ते वस्त्रे तद्रूपाऽप्रतिपत्तावपि 'वस्त्रम्' इति ज्ञानम् – तदपि प्राक्तनशुक्लरूपविनाशे सामग्र्यन्तरोपजातरूपान्तरस्य अध्यक्षेण ग्रहणे सति उत्तरकालं तत्पृष्ठभाविसमयवशात् 'वस्त्रम्' इति समुदायविषयं सांवृतं परमार्थतो निर्विषयमेव प्रत्यवमर्शज्ञानम् इत्यसिद्धमस्य प्रत्यक्षत्वम् । न चैतद् अनुमानम् पूर्वाध्यक्ष(क्षाs)गृहितविषयत्वात् अलि(लै)ङ्गिकत्वात् च । तन्नात्र अभिभूतं किंचिद् रूपं विद्यते । न चाभिभूतवस्त्ररूपस्य तदवस्थायामभावे धौतवस्त्रावस्थायां पुनः शुक्लरूपानुपलब्धिः स्यादिति वक्तव्यम्, यतः अग्न्यादिसामग्रीप्रादुर्भूतभास्वररूपस्य लोहादेः पुनः श्यामादिरूपान्तरोत्पत्तिवत् तत्रापि सामग्र्यन्तरात् शुक्लरूपोत्पत्तेरविरोधात् । न च 'प्राक्तनमेव रूपमभिभूतत्वात् तदानुपलब्धम् पश्चाद् अभिभवाभावाद् उपलभ्यते' इत्यस्य प्रतिषेधेन 'रूपान्तरमेव प्राक्तनरूपविनाशेनोपजातमत्रोपलभ्यते' इति भवतोऽपि किं प्रमाणमिति वक्तव्यम्, अनुमानस्य सद्भावात् । तथाहि – यदपरित्यक्तानभिभूत-स्वभावं तस्य न परेणाभिभवः यथा पूर्वावस्थायां तस्यैव, अपरित्यक्तानभिभूतस्वभावं चाभिभवावस्थायां रूपमिति - जैसे धूम से अग्नि का अनुमान उदित होता है वैसे ही रूपादिसंघातविशेषात्मक पुरुषविरचित कंचुक के तथाविध ऊर्ध्वाकारादि रचनाविशेष और उस की हिल-चाल को लिंग बना कर लोग वहाँ उस के निमित्त के रूप में लिंगी 'पुरुष' का अनुमान कर लेते है । * अभिभूत रूप का अस्वीकार * भेदवादीने जो कहा है कि - केसररञ्जित वस्त्र के बारे में वस्र के मूलरूप का उपलम्भ न होने पर भी 'यह वस्त्र है' ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान होता है - वह भी ठीक नहीं है क्योंकि केसर से रंजित किये गये वस्त्र का पूर्वकालीन श्वेतरूप अभिभूत नहीं किन्तु नष्ट ही हो जाता है, एवं अन्यरूपजनक केसरादि सामग्री के प्रभाव से जो अन्य (केसरी) रूप उत्पन्न होता है उसी का वहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उस के बाद उत्तरक्षण में उस के पूर्वकालसंजात संकेत के प्रभाव से 'यह वस्त्र है' इस प्रकार समुदायावलम्बि कल्पनाप्रभव ज्ञान होता है, वास्तव में यह प्रत्यवमर्शी ज्ञान विषयशून्य ही होता है । इसी लिये उस में प्रत्यक्षत्व नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि (बौद्ध मतानुसार) रूप विनश्वर पदार्थ है, श्वेतरूप के विनाश के बाद यदि केसरी वर्ण उत्पन्न होता है तब उस का प्रत्यक्ष होता है किन्तु वस्त्र का नहीं होता, वस्त्र का परामर्शात्मक ज्ञान तो पूर्वकालीन वासना के प्रभाव से होता है इसीलिये उस को सांवत या काल्पनिक कहा जाता है, जिस का वास्तविक कोई विषय ही नहीं है, अतः ऐसे परामर्शात्मक ज्ञान में प्रत्यक्षत्व का सम्भव ही नहीं है । वस्त्रविषयक उक्त ज्ञान में प्रत्यक्षत्व का सम्भव ही नहीं है । वस्त्रविषयक उक्त ज्ञान को अनुमानरूप भी नहीं मान सकते, क्योंकि अनुमेय पदार्थ पहले कभी प्रत्यक्ष से गृहीत होना चाहिये, किन्तु यह तो कभी प्रत्यक्ष से गृहीत ही नहीं हुआ। तथा अनुमान लिंग-जन्य होता है किन्तु यह कोई लिंगजन्य ज्ञान नहीं है । निष्कर्ष, पूर्वरूप का नाश माना जा सकता है किन्तु 'अभिभूत हो कर वह पूर्वरूप तब भी विद्यमान होता है' ऐसी बात अतथ्य है । * पूर्वरूपनाश - नूतनरूपोत्पत्ति पक्ष में शंका-समाधान * यदि यह पूछा जाय - केसररंजित वस्त्र के पूर्व श्वेत रूप का अभिभव हो जाने की दशा में आप अगर उस का विनाश ही मान लेते हैं तो वस्त्रधावन के बाद पुनः जो श्वेतरूप की उपलब्धि होती है वह कैसे होगी ? - तो इस का जवाब यह है, जैसे अग्नि में रखे गये लोहे में जो भास्वररूप उपलब्ध होता है, बाहर निकालने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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