________________
पञ्चमः खण्डः का० ४९
८९
इति । तथा च 'पृथिवी' इति एकवचनम् ' रूप-रस- गन्ध-स्पर्शाः ' बहुवचनमुपलभ्यते इति तयोर्भेदः । अवयवावयविनोरप्यनुमानतः सिद्धो भेदः । तथाहि - विवादाधिकरणेभ्यस्तन्तुभ्यो भिन्नः पटः भिन्नकर्तृकत्वात् घटादिवत्, भिन्नशक्तिकत्वाद् वा विषाऽगदवत्, पूर्वोत्तरकालभावित्वाद् वा पिता-पुत्रवत्, विभिन्नपरिणामत्वाद् वा कुवलबिल्ववत् इति । विरुद्धधर्माध्यासनिबन्धनो ह्यन्यत्रापि भावानां भेदः, स च अत्राप्यस्ति इति कथं न भेदः ? यदि चावयवी अवयवेभ्यो भिन्नो न भवेत् स्थूलप्रतिभासो न स्यात् परमाणूनां सूक्ष्मत्वात् । न च अन्यादृग्भूतः प्रतिभासः अन्यादृगर्थव्यवस्थापकः अतिप्रसंगात् । न च स्थूलाभावे 'परमाणु : ' इति व्यपदेशोऽपि संभवी, स्थूलापेक्षितत्वाद् अणुत्वस्य' उद्योतकरादयः । अत्र प्रतिविधीयते - यदुक्तम् ' स्वगतगुणाऽनुपलम्भेऽपि वलाका स्फटिकादय उपलभ्यन्ते' इति तदसंगतम्, तज्ज्ञानस्य अयथार्थत्वेन भ्रान्ततया निर्विषयत्वात् । तथाहि
-
बलाकादयः शुक्लाः सन्तः से भिन्न है, क्योंकि द्रव्य के लिये एकवचन का और गुण के लिये बहुवचन का प्रयोग होता है । उदा० चन्द्र का एकवचन में और नक्षत्रों का बहुवचन में प्रयोग होता है, चन्द्र और नक्षत्रों में भेद होता है । प्रस्तुत में ‘पृथ्वी' एकवचनान्त प्रयोग है जब कि 'पृथ्वीव्यां रूप-रस- गन्ध-स्पर्शाः यहाँ रूपादि गुणों का बहुवचनान्त प्रयोग होता है। इस से यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी द्रव्यरूप गुणी और रूपादि गुणों में भेद है । * अवयव - अवयवी में भेद की स्थापना
Jain Educationa International
पूर्वपक्ष
अवयव और अवयवी के भेद की सिद्धि भी अनुमान से शक्य है । देखिये तन्तु वस्त्र से अभिन्न है या भिन्न इस विवाद के अधिकरण जो तन्तु हैं उन को पक्ष बना कर यह प्रयोग है, विवादास्पद तन्तुओं वस्त्र से भिन्न हैं क्योंकि वस्त्रकर्त्ता से भिन्नकर्तृक हैं जैसे कि घटादि । घटादि के कर्ता से तन्तु का कर्त्ता भिन्न है और तन्तुओं से घटादि भिन्न हैं । अथवा शक्तिभेद को भी हेतु कर सकते हैं, जैसे विष और औषध की शक्ति भिन्न भिन्न होती है और विष तथा औषध भिन्न होते हैं वैसे ही तन्तु और वस्त्र की शक्ति भी भिन्न भिन्न है, अतः तन्तु से वस्त्र भिन्न होना चाहिये । अथवा पूर्वोत्तरकालभावित्व को हेतु कर सकते हैं, पिता और पुत्र में पूर्वोत्तरकालभावित्व होता है और भेद होता है, इसी तरह तन्तु पूर्वकाल भावि हैं और वस्त्र उत्तरकालभावि हैं इस लिये उन में भेद ही होना चाहिये । अथवा, परिमाणभेद हेतु बनाईये | कुबल और बिल्व (मोती और बेल- फल) का परिमाण भिन्न भिन्न होता है और उन में भेद होता है वैसे ही तन्तु और बस्त्र में परिमाणभेद होने से वस्तुभेद होना चाहिये । सब जानते हैं कि वस्तुभेद सर्वत्र विरुद्धधर्माध्यासमूलक होता है, तन्तु और वस्त्र में भी उपरोक्त ढंग से कई प्रकार विरुद्धधर्माध्यास प्रतीत होता है, तो फिर उन में भेद क्यों न होगा १ अवयवी यदि अपने अवयवों से भिन्न न होता तो, परमाणुरूप अवयव सूक्ष्म हो के कारण, उस से अ-भिन्न अवयवी सूक्ष्मरूप से ही भासित होता न कि स्थूलरूप से भासित होता । ऐसा तो कभी नहीं होता कि एक तरह के वस्तु प्रतिभास से अन्यप्रकार की वस्तु की स्थापना की जा सके, वस्त्र के प्रतिभास से कभी शस्त्र के अस्तित्व की स्थापना नहीं हो सकती । अगर एक तरह के वस्तु प्रतिभास से अन्य तरह की वस्तु की स्थापना मंजुर हो तब तो अश्वप्रतिभास से हस्ती की स्थापना का अतिप्रसंग हो सकता है । यदि अवयवी जैसे किसी स्थूलभाव को मंजुर नहीं करेंगे तो अणुत्व और स्थूलत्व परस्पर सापेक्ष होने के कारण ‘परमाणु’ ऐसा व्यवहार भी नहीं कर पायेंगे, अर्थात् स्थूल के विरह में परमाणु का भी अभाव प्रसक्त होगा । इस तरह उद्योतकर आदि, अवयवी भेदवाद का समर्थन करते हैं । उस के प्रतिकार में अब कहते हैं -
For Personal and Private Use Only
—
—
www
www.jainelibrary.org