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________________ ८८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गुण्यवयवी च दृश्यत्वेनाऽभिमतो नोपलभ्यते च तत्रैव देशे इति स्वभावानुपलब्धिः । न च हेतोविशेषणमसिद्धम्, ‘महति अनेकद्रव्यवत्त्वात् रूपाच्चोपलब्धिः' (वैशे. ४-१-६) इति वचनात् तयोर्दृश्यत्वेनाऽभ्युपगमात् । ननु गुणव्यतिरिक्तो गुणी उपलभ्यत एव तद्रूपादिगुणाऽग्रहणेऽपि तस्य ग्रहणात् । तथाहि - मन्दमन्दप्रकाशे तद्गतसितादिरूपानुपलम्भेऽपि उपलभ्यते बलाकादिः, स्वगतशुक्लगुणाऽग्रहणेऽपि च सन्निहितोपधानावस्थायां गृह्यते स्फटिकोपलः, तथाऽऽप्रपदीनकञ्चकावच्छन्नशरीरः पुमांस्तद्गतश्यामादिरूपाऽप्रतिभासेऽपि 'पुमान्' इति प्रत्ययोत्पत्तेः प्रतिभात्येव, कुङ्कुमादिरक्तं च वस्त्रं तद्रूपस्य संसर्गिरूपेणाऽभिभूतस्य अप्रकाशेऽपि प्रकाशत एव 'वस्त्रम्' इति प्रत्ययोत्पत्तेः अध्यक्षत एव गुण-गुणिनोर्भेदः सिद्धः तथा, अनुमानतोऽपि तयोर्भेदः । तथाहि - यद् यद्व्यवच्छेद्यत्वेन प्रतीयते तत् ततो भिन्नम् यथा देवदत्ताद् अश्वः गुणिव्यवच्छेद्यत्वेन प्रतीयते च नीलोत्पलस्य रूपादय इति । तथा, पृथिव्यप्तेजोवायवो द्रव्याणि रूप-रस-गन्ध-स्पर्शेभ्यो भिन्नानि, एकवचन-बहुवचनविषयत्वात् यथा 'चन्द्रः' 'नक्षत्राणि' होने पर भी अवयवदेश में ही उपलब्ध नहीं होता । अतः अवयवी सत्ताशून्य सिद्ध होता है । यहाँ उपलब्धियोग्य मानने पर भी उपलब्ध न होना यह उपलम्भस्वभाव की अनुपलब्धि हेतुरूप में प्रयुक्त है। हेतु में 'उपलब्धियोग्य होना' यह विशेषण-अंश है जो कि गुणी या अवयवी के बारे में असिद्ध है ऐसा कह नहीं सकते, क्योंकि वैशेषिकसूत्र में अवयवी के लिये कहा गया है कि 'महत्परिणामवाले अवयवी की, अनेकद्रव्यवत्ता और रूप के प्रभाव से उपलब्धि होती है।' अनेकद्रव्यवत्ता यानी अनेकद्रव्य में समवायित्व समझना । वैशेषिकसूत्र के उक्त कथन से प्रतिवादी को गुणी अथवा अवयवी में दृश्यत्व का स्वीकार सिद्ध हो जाता है । * गुण और गुणी में भेद की स्थापना - पूर्वपक्ष * भेदवादी :- गुण से भिन्न गुणी की उपलब्धि अवश्य होती है, क्योंकि किसी एक वस्तु के रूपादिगुण का ग्रहण न होने पर भी उस वस्तु का ग्रहण होता है । जैसे देखिये - प्रकाश जब अत्यन्त मन्द हो जाता है तब गगनादि में ऊडते हुए बगुले आदि का श्वेतादि रूप स्पष्ट न दिखाई देने पर भी 'कोई पक्षी ऊड रहा है' इस ढंग से बगुले आदि का ग्रहण होता है । तथा, स्फटिक रत्न के पीछे कोई जपाकुसुमादि उपाधि संनिहित रहती है तब उस स्थिति में यद्यपि स्फटिकगत अभास्वरशुक्ल रूप का ग्रहण नहीं होता फिर भी स्फटिकरत्न का (गुणी का) ग्रहण तो होता ही है । तथा, मस्तक से पैर तक कंचुकवस्त्र से शरीर का आच्छादन कर लेने वाले पुरुष का श्यामादि कोई रूप भासित नहीं होता फिर भी ‘यह पुरुष है' ऐसा बोध उत्पन्न होता है इसलिये पुरुष का प्रतिभास तो होता ही है । तदुपरांत, जब किसी श्वेत वस्त्र को केसरादि रंग से रंगा जाता है तब संसर्गी केसरादि द्रव्य के रक्तरूप से वस्त्र का श्वेत रूप पराभूत हो जाने से उपलब्ध नहीं होता, फिर भी वस्त्र तो भासता ही है क्योंकि वहाँ 'यह वस्त्र है' एसी निर्बाध प्रतीति होती है । इन सब उदाहरणों से प्रत्यक्ष यह सिद्ध होता है कि न भासने वाला गुण और फिर भी भासित होनेवाला द्रव्य ये दोनों भिन्न भिन्न हैं। प्रत्यक्ष उपरांत, अनुमान से भी गुण-गुणी का भेद सिद्ध है, देखिये, जो जिस से व्यवच्छिन्न होता हुआ प्रतीत होता है वह उस से भिन्न होता है । उदा० देवदत्त से अश्व व्यवच्छिन्न होता हुआ भासित होता है और वह उससे भिन्न भी होता है । प्रस्तुत में, नील-कमलादि गुणी से उस के रूपादि गुण, अपने गुणी से व्यवच्छिन्न होते हुए भासित होते हैं इस लिये गुणी और गुण भिन्न होना सिद्ध होता है । यह दूसरा अनुमान – पृथ्वी, जल, तेज और वायु यह एक एक द्रव्य रूप-रस-गन्ध और स्पर्श गुणों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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