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पञ्चमः खण्डः - का० ४९ 'नाऽकारणं विषयः' इति प्रसाधितत्वात् । नित्यस्य चाऽकारणत्वात् । तन्न चतुःसंख्यं परमाण्वात्मकं नित्यद्रव्यं सम्भवति ।
नापि तदारब्धमवयविद्रव्यं सम्भवति, गुणावयवव्यतिरिक्तस्य तस्याऽनुपलम्भात् न हि शुक्लादिगुणेभ्यः तन्त्वाद्यवयवेभ्यश्चार्थान्तरभूतं पटादि द्रव्यं चक्षुरादिज्ञानेऽवभासते । न चावयविनो व्यणुकादेरनुपलम्भे परमाणूनां विविक्तस्वरूपाणामुपलम्भाऽविषयत्वात् प्रतिभासाऽभावप्रसक्तेः, आश्रयासिद्धतया अवयव्यादिनिषेधकप्रसंगसाधनप्रयोगानुपपत्तिः इति वक्तव्यम्, परमाणूनामेव विशिष्टाकारतयोत्पन्नानां प्रतिभासविषयतया आश्रयासिद्धताद्यनुपपत्तेर्न प्रयोगानुपपत्तिः । एवं च यद् उपलब्धिलक्षणप्राप्तं सद् यत्र नोपलभ्यते तत्तत्र नास्ति, यथा क्वचित् प्रदेशविशेषे घटादिरनुपलम्भविषयः; गुणावयवार्थान्तरभूतो धर्मवाले हो कर ही प्रमाण का विषय बनते हैं । (नित्य भाव अर्थक्रियाकारी न होने से किसी का भी कारण नहीं बनता) जो अनित्य नहीं है वह प्रमाजनक भी नहीं होता, फलतः वह प्रमाणविषय भी नहीं हो सकता। पहले से यह सिद्ध है कि जो प्रमा का कारण नहीं होता वह उस का विषय भी नहीं हो सकता । नित्य पदार्थ तो निष्क्रिय होने से किसी का (प्रमा का) कारण ही नहीं होता। अतः अनित्यत्वसाधक प्रमाण सर्ववस्तुव्यापक होने से अणु यदि वस्तुभूत हैं तो उन में भी प्रमाणविषयत्व की अन्यथाअनुपपत्ति से अनित्यत्व की सिद्धि निर्बाध है, इस में कोई आश्रयासिद्धि दोष को अवकाश नहीं है । निष्कर्ष :- पृथ्वी आदि परमाणुरूप चार द्रव्य नित्यद्रव्यरूप नहीं हो सकता ।
* स्वतन्त्र अवयवी का अस्तित्व नहीं है * वैशिषिक मतानुसार जिस को अवयवी द्रव्य कहा जाता है जो कि परमाणुसंयोगजन्य माना जाता है वह सम्भवारूढ नहीं है । इसलिये कि (रूपादि) गुण और (तन्तु आदि) अवयवों से पृथक् किसी (वस्त्रादि) अवयवी का उपलम्भ ही नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जब वस्त्र को देखते हैं तो शुक्लादि गुण दिखाई देते हैं और व्यवस्थित गठे गए तन्तुआदि अवयव चाक्षुषज्ञान में उपलब्ध होते हैं किन्तु इन से अतिरिक्त कोई वस्त्रसंज्ञक अवयवी उपलब्ध नहीं होता कि जो तन्तु से भिन्न हो । यदि यह कहा जाय - 'इस तरह यदि आप अवयवी का यानी व्यणुकादि द्रव्यों का उपलम्भ नहीं मानते हैं तब तो जगत् परमाणुमय शेष रहा, परमाणु तो चक्षुगोचर होते ही नहीं क्योंकि वे एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न कणात्मक हैं, फलतः अवयवी और अवयव किसी का भी प्रतिभास सम्भव न होने से प्रतिभास मात्र का उच्छेद प्रसक्त होगा । अब तो द्रव्यरूप आश्रय ही असिद्ध हो गया तो किस को पक्ष बना कर अवयवी आदि का प्रतिषेध करनेवाले अनुमान का प्रयोग कर सकेंगे ?" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्वतन्त्र परमाणु और परमाणु से सर्वथा अतिरिक्त द्रव्य के प्रतिभासविरह में भी, विशिष्टस्थूलाकार रूप से उत्पन्न परमाणुपुञ्ज तो प्रतिभासित होता ही है अतः प्रतिभासमान विशिष्टाकार परमाणुपुञ्जस्वरूप आश्रय के रहते हुए आश्रयासिद्धता आदि की बात ही असंगत हो जाती है । अतः अवयवीनिषेधक अनुमान के प्रयोग में कोई असंगति नहीं रहती।
* अवयविनिषेध साधक अनुमान * इस स्थिति में यह स्वभावानुपलब्धिहेतुक अनुमान हो सकता है कि - जो उपलब्धियोग्य होने पर भी जहाँ उपलब्ध नहीं होता वह वहाँ विद्यमान नहीं होता । उदा० अर्ध्वाकाशादि रूप विशिष्ट प्रदेश में उपलब्ध न होनेवाला घटादि । प्रस्तुत में गुण और अवयवों से अर्थान्तरभूत गुणी अथवा अवयवी दृश्यरूप से अभिमत
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