SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ सिद्धिमासादयेयुः । तन्नादृष्टमपि मनसः प्रतिनियमहेतुः । न च 'येनात्मना यन्मनः प्रेर्यते तत् तत्सम्बन्धि' इति प्रतिनियमः, अदृष्टवदात्मनोऽप्यचेतनत्वेन तत् प्रत्यप्रेरकत्वात् । चेतनत्वेऽपि नानुपलब्धस्य प्रेरणमिति न नियतं मनः सिद्ध्यतीत्येकस्मात् ततो युगपत् सर्वसुखादिसंवेदनप्रसक्तिरित्युक्तन्यायेन सुखादिसंवेदनस्यार्थसंनिकर्षजन्यत्वाभावाद् हेतुरनेन व्यभिचारी (१६७-६०४) किञ्च, स्वसंविदितविज्ञानानभ्युपगमे ‘सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बन: अनेकत्वात् पञ्चाङ्गुलिवत्' इत्यत्र पक्षीकृतैकदेशेन व्यभिचारः, तज्ज्ञानान्यसदसद्वर्गयोरनेकत्वाऽविशेषेऽप्येकज्ञानालम्बनत्वाभावात्, एकशाखाप्रभवत्वानुमानवत्। अथ सर्वज्ञज्ञानं स्वसंविदितमिति नानेकत्वानुमानस्य व्यभिचारः तर्हि संवेदन से ही उस सुखादि का ग्रहण होगा - यह नियम अभेदपक्ष में सुसंगत है। तात्पर्य, 'यह मन उसी आत्मा का है' ऐसे नियतभाव का हेतु अदृष्ट नहीं हो सकता। 10 यदि कहें कि - 'जिस मन का जो प्रेरक होगा वह मन उसी आत्मा का सम्बन्धी बनेगा ‘ऐसा प्रतिनियम बन सकता है' - तो यह भी गलत है क्योंकि नैयायिकादि के मत में आत्मा भी मन की तरह स्वतः चेतन न होने से जड है अत एव वह किसी भी मन का प्रेरक नहीं बन सकता। कदाचित् आत्मा को स्वतः चेतन मान ले तो भी वह मन का प्रेरक नहीं बन सकता क्योंकि आप के मत में आत्मा भी असंनिकृष्ट मन का प्रेरक नहीं बन सकता, कौन सा मन कब किस 15 आत्मा को संनिकृष्ट बनेगा उस का कोई नियामक नहीं है। अन्ततः 'इस जीव का यह मन' ऐसा नियतभाववाला मन सिद्ध नहीं होता। तब एक ही मन से एकसाथ सर्व आत्माओं को सुखादिसंवेदन हो जाने की विपदा होगी। अब तक जो विमर्श किया गया उससे यह सिद्ध होता है जो हमने पहले ही (प०६७-पं.२४) कहा था कि “सुखादिसंवेदन इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य है क्योंकि प्रत्यक्षज्ञानमय है" इस प्रयोग में हेतु व्यभिचारी 20 है, क्योंकि सुखादिसंवेदन में इन्द्रियार्थसंनिकर्ष (मनःसंनिकर्ष) जन्यत्व का पूर्वोक्त प्रकार से अभाव ही सिद्ध हो रहा है। साध्य के विरह में रहनेवाला प्रत्यक्षत्वहेतु साध्यद्रोही ठहरता है। नैयायिकादि यदि ज्ञान को स्वसंविदित नहीं मानेंगे तो उन के इस निम्नोक्त अनुमान में हेतु पक्ष के एक अंश में व्यभिचारी ठहरेगा। अनुमानः- “सद् (द्रव्यादि) एवं असत् (अभावादि) का समुदाय किसी को एक ही ज्ञान (केवलज्ञान) के विषयभूत है; क्योंकि वह समुदाय अनेकात्मक है, जैसे पाँच 25 ऊँगलीयाँ अनेकात्मक हैं तो वह हमारे एक ही ज्ञान में विषयभूत बनती हैं।" इस अनुमान में पक्ष के एक अंश में व्यभिचार दोष होगा। कारण, यहाँ पक्ष में सर्वज्ञ का ज्ञान भी अन्तर्भूत है, यदि वह स्वसंविदित नहीं है तो ‘सर्वज्ञज्ञान एवं अन्य सदसत्समुदाय' यह अनेक होते हुए भी किसी एक ज्ञान के विषय नहीं होंगे। (ईश्वर तो एक ही है, उसके ज्ञान में अनेकत्व हेतु न रहने से वहाँ व्यभिचार नहीं बता सकते, इस लिये ईश्वरज्ञान और अन्य सदसत्समुदाय को मिला कर के उस में 30 अनेकत्व हेतु के रहने से, एकज्ञानविषयता के न रहने से, हेतु व्यभिचारी बन गया।) यदि कहें कि - 'सर्वज्ञ (ईश्वर) का ज्ञान तो स्वंसविदित मानते ही हैं, अतः अनेकत्व हेतु में व्यभिचार नहीं होगा।' - अरे तब तो, ईश्वरज्ञान में जैसे स्वात्मा में क्रियाविरोध नहीं मानते, इस दृष्टान्त के बल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy