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________________ खण्ड-४, गाथा-१ तज्ज्ञानवदन्यज्ञानस्यापि न स्वात्मनि क्रियाविरोधः इति ‘सर्वं ज्ञानं स्वसंविदितम् ज्ञानत्वात् सर्वज्ञज्ञानवत्' इति तदृष्टान्तबलात् स्वसंविदितसकलज्ञानसिद्धिः; 'घटादिज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्यम् ज्ञेयत्वात् घटवद्' इत्यत्र च व्यभिचारः। अथ 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' (न्या-द०१-१-१६) इति वचनात् आत्मेन्द्रियविषयसंनिधानेऽपि यतो युगपज्ज्ञानानि नोपजायन्ते ततोऽवसीयते अस्ति तत्कारणं यतस्तथा तदनुत्पत्तिरिति तत्कारणं मनः 5 सिद्धम् । ननु तदनुत्पत्तिर्मनःप्रतिबद्धा कुतः सिद्धा यतस्तस्यास्तदनुमीयेत ? अथात्मनः सर्वगतस्य सर्वार्थः सम्बन्धात् पञ्चभिश्चेन्द्रियरात्मसम्बद्धैः स्व(स्व)विषयसम्बन्धे एकदा किमिति युगपज्ज्ञानानि नोत्पद्यन्ते यद्यणु मनो नेन्द्रियैः सम्बन्धमनुभवेत् ? तत्सद्भावे तु यदैकेनेन्द्रियेणैकदा तत् सम्बध्यते न तदाऽपरेण, तस्य सूक्ष्मत्वात्, इति सिद्धा युगपज्ज्ञानानुपपत्तिर्मनोनिमित्तेति। नन्वेवं तस्यात्मसंयोगसमये श्रोत्रसंज्ञकेन से तो अन्य ज्ञानों में भी क्रियाविरोध न होने से सकल ज्ञानो में स्वसंविदितत्व की सिद्धि निराबाध 10 होगी। देखिये – 'ज्ञानमात्र स्वसंविदित होता है क्योंकि ज्ञानमय होता है जैसे सर्वज्ञ (ईश्वर) का ज्ञान ।' ____ आपने जो पहले यह अनुमान प्रस्तुत किया था कि “घटादिज्ञान अन्यज्ञानबोध्य है क्योंकि ज्ञेय है जैसे कि घट” – इस में अब ज्ञेयत्व हेतु में स्पष्ट ही साध्यद्रोह दोष है क्योंकि ज्ञेयत्व हेतु स्वसंविदित सर्वज्ञादि सभी के ज्ञान में रहता है। * एकसाथ अनेकज्ञानानुत्पत्ति से मन की सिद्धि - नैयायिक * 15 नैयायिक – 'ज्ञान एकसाथ उत्पन्न नहीं होते हैं यही मन की सिद्धि करनेवाला लिंग है' यह न्यायदर्शन सूत्रवचन मन का साधन है। देखिये - आत्मा का सम्पर्क सभी इन्द्रियों के साथ सदैव रहता है और सभी इन्द्रियों के साथ अपने अपने विषयों का संनिकर्ष भी सदैव रहता है - तब जो प्रश्न होगा कि क्यों एक साथ सभी इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता ? इस के उत्तर की शोध में पता चलता है कि और भी एक कारण है जिस के वैकल्य से एक साथ अनेक 20 इन्द्रियों से अनेक ज्ञान नहीं हो पाते, वह कारण ही मन है - यह सिद्ध होता है। जैन :- ‘एक साथ अनेक ज्ञानानुत्पत्ति' मन के ही वैकल्य की बदौलत है यह कहाँ सिद्ध है जिस से कि 'एकसाथ अनुत्पत्ति' लिंग से मन की अनुमिति हो सके ? नैयायिक :- यदि अणु मन असिद्ध है, इन्द्रियों के साथ उस का सम्बन्ध असिद्ध है तो प्रश्न यह खडा होगा कि आत्मा सर्वव्यापि होने से सभी पदार्थों से यानी सभी इन्द्रियों से एक साथ सदैव 25 सम्बद्ध रहता है, आत्मसम्बद्ध पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों के साथ एक ही काल में जब संनिकृष्ट हैं तब एक साथ अनेक ज्ञान क्यों जन्म नहीं पाते ? मन सिद्ध है एवं मन अणु भी है इसी लिये वह एककाल में एक ही इन्द्रिय से सम्बन्ध रखता है तब अन्य इन्द्रिय से असम्बद्ध रहता है क्योंकि वह सूक्ष्म अणुमय है, अत एव एक साथ ज्ञान की अनुत्पत्ति मन की बदौलत होना सिद्ध हो जाता है। 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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