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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
नभसापि संयोगात् संयुक्तसमवायाऽविशेषात् सुखादिवत् शब्दोपलब्धिरपि तदैव स्यात्, निमित्तस्य समानत्वेऽपि युगपज्ज्ञानानुपपत्तौ निमित्तान्तरमभ्युपगन्तव्यमिति नातो मनःसिद्धिः ।
न च कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नाकाशदेशस्य श्रोत्रत्वात् तेन च तदैव मनसः सम्बन्धाभावान्नायं दोषः ; निरंशस्य नभसः प्रदेशाभावात् । न च संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वं तस्य प्रदेशव्यपदेशनिमित्तम्, उपचरितस्य 5 व्यपदेशमात्रनिबन्धनस्याऽर्थक्रियायामुपयोगाभावात्, न ह्युपचरिताग्नित्वो माणवकः पाकनिर्वर्त्तनसमर्थो दृष्टः । न च कर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभोभागस्य तथाविधस्यापि शब्दोपलब्धिहेतुत्वमुपलभ्यत एवेति वाच्यम् तदुपलब्धेरन्यनिमित्तत्वात् । किंच, चक्षुराद्यन्यतमेन्द्रियसम्बन्धाद् रूपादिज्ञानोत्पत्तिकाले मनसः सम्बद्धसम्बन्धात् * मन अणु होने पर भी सुखादिसंवेदन के साथ शब्दश्रवणापत्ति- जैन जैन :- मन को मानने पर भी सुखादिसंवेदन काल में शब्द का ज्ञान होने की विपदा तदवस्थ रहेगी । 10 जब मन आत्मा से संयुक्त है और आत्मा में सुख का समवाय सम्बन्ध है तब संयुक्त समवाय संनिकर्ष से सुख का संवेदन तो होगा, लेकिन उसी काल में मन आकाशरूप श्रोत्रनामक इन्द्रिय से भी संयुक्त है और आकाश में शब्द का समवाय है अतः संयुक्तसमवायसंनिकर्ष से सुखसंवेदन के साथ साथ ही शब्द का श्रावणप्रत्यक्ष मानना पडेगा । यहाँ अणु मन दोनों ज्ञान की उत्पत्ति में समानरूप से निमित्त बनेगा । यदि इस विपदा को टालने के लिये किसी अन्य निमित्त की खोज करने जायेंगे तो उसी अन्य निमित्त की सिद्धि 15 होगी, उसी से एक साथ ज्ञानानुत्पत्ति की संगति भी बैठ जायेगी, फिर मन की सिद्धि रुक जायेगी । * कर्णविवरगत गगन की श्रोत्रेन्द्रियता निष्प्रमाण**
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नैयायिक :- सुखसंवेदन के समय मन का आकाश के साथ संयोग रहते हुए भी श्रोत्रेन्द्रिय से संनिकर्ष नहीं होता, क्योंकि पूरा आकाश श्रोत्ररूप नहीं है, सिर्फ कर्णविवरगत आकाशभाग ही श्रोत्र है ।
जैन :- आप के मत से जब आकाश निरंश है, उस का कोई स्वतन्त्र भाग जैसा तत्त्व नहीं है तब कर्णविवर गत आकाशभाग को ही श्रोत्रेन्द्रिय कहना बेकार है, मानना है तो निरंश पूरे गगन को 'श्रोत्र' मानना होगा या तो श्रोत्र को आकाशरूप होने की मान्यता छोड़नी पडेगी । नैयायिक :- निरंश होने पर भी गगन में सप्रदेशता व्यवहारसिद्ध है, इसीलिये तो आकाशगत मूर्त्तसंयोग अव्याप्यवृत्ति होना मान्य रखा गया है।
* उपचरित वस्तु से कार्यसिद्धि दुष्कर
जैन : गगन की सप्रदेशता का व्यवहार वास्तविक नहीं है, औपचारिक है । व्यवहार के लिये स्वीकृत औपचारिक पदार्थ किसी भी अर्थक्रिया के लिये उपयोगी नहीं बन जाता। अग्नि की तरह प्रचंड तापस्वभावी ‘माणवक' नाम के पुरुष को उपचार से अग्नि ही कहा जाता है उस का मतलब यह नहीं है कि उस के सिर पर बरतन रख कर चावल पका लिया जा सके ।
नैयायिक :- प्रस्तुत में तो देखा जाता है कि निरंश गगन के कर्णविवरगत भाग की कल्पना और उस में श्रोत्रेन्द्रिय का व्यवहार करते हैं तो शब्दश्रवणात्मक अर्थक्रिया निष्पन्न होती है । इस तरह श्रोत्ररूप सीमित आकाश से ही शब्दोपलब्धि मानने में कोई हरकत नहीं ।
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