SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड-४, गाथा - १ मानसज्ञानं किं न भवेत् ? न च ' तथाविधादृष्टाभावात्' इत्युत्तरम्, अदृष्टनिमित्तयुगपज्ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तितो मनसोऽनिमित्तताभावात्। अश्वविकल्पसमये गोदर्शनानुभवाद् युगपज्ज्ञानुत्पत्तिश्चासिद्धा कथं मनोऽनुमापिका ? न चाश्वविकल्प-गोदर्शनयोर्युगपदनुभवेऽपि क्रमोत्पत्तिकल्पना, अध्यक्षविरोधात् । न चोत्पलपत्रशतव्यतिभेदवदाशुवृत्तेः क्रमेऽपि यौगपद्यानुभवाभिमानः; अध्यक्षसिद्धस्य दृष्टान्तमात्रेणान्यथाकर्त्तुमशक्तेः, अन्यथा शुक्लशङ्खादौ पीतविभ्रमदर्शनात् स्वर्णेऽपि तद्भ्रान्तिर्भवेत् । ' मूर्त्तस्य सूच्यग्रस्योत्तराधर्यव्यवस्थितमुत्पलपत्रशतं 5 युगपद् व्याप्तुमशक्तेः क्रमभेदेऽप्याशुवृत्तेस्तत्र यौगपद्याभिमानः' इति युक्तम्, आत्मनस्तु क्षयोपशमसव्यपेक्षस्य जैन : गगनांशरूप श्रोत्र शब्दोपलब्धि का निमित्त ही नहीं है । शब्दोपलब्धि का निमित्त तो कर्णविवरान्तर्गत कर्णपटलादि ही श्रोत्रेन्द्रियरूप है । दूसरा प्रश्न यह है मन जब नेत्रादि किसी एक इन्द्रिय से संनिकर्ष करता है तब रूपादिविज्ञान जैसे उत्पन्न होता है, उसी काल में मानसप्रत्यक्ष भी क्यों नहीं होता, जब कि उसी समय इन्द्रियसम्बद्ध 10 मन का आत्मा से सम्बन्ध तो मौजूद ही रहता है ? नैयायिक :- उस काल में मानसप्रत्यक्षकारण अदृष्ट नहीं होने से मानसज्ञान नहीं हो सकता । जैन :- यह उत्तर व्यर्थ है, क्योंकि इस का फलितार्थ यह निकलेगा कि एकसाथ अनेक ज्ञान उत्पन्न न होने की वजह है तथाविधअदृष्टवैकल्य, न कि मन । ( तब मन की निमित्तता का भंग प्रसक्त होगा ।) ७५ - सच बात तो यह है कि जब अश्वदर्शन के बाद दृष्टा को अश्व का विकल्पज्ञान उदित होता है उसी समय गोसंनिकर्ष के द्वारा गउआ का दर्शन भी उत्पन्न होता है, यानी एकसाथ दो ज्ञान भी उत्पन्न होते हैं, तब असिद्ध एकसाथज्ञानद्वयानुत्पत्ति को लिंग बना कर मन के अनुमान को अवकाश ही कहाँ बचता है ? * युगपद् ज्ञानोत्पादअनुभव भ्रमरूप नहीं है पूर्वपक्षी :- अश्वविकल्प के काल में साथ साथ गोदर्शन का अनुभव भले होता हो लेकिन कल्पना से वहाँ भी क्रमिक उत्पत्ति ही मानना चाहिये । Jain Educationa International उत्तरपक्षी ऐसी कल्पना करने में स्पष्ट ही प्रत्यक्ष का विरोध है । पूर्वपक्षी :- सहोत्पत्ति विषयक प्रत्यक्ष तो भ्रान्त है । उदा० एक सो कमल पत्रों का जब किसी किली सुइ से वेध किया जाय तब जैसे आदमी को यह भ्रम होता है कि मैंने एकसाथ ही सभी 25 पत्रों का वेध कर दिया । वास्तव में तो वहाँ ऊपर से नीचे एक के बाद दूसरे का वेध होता है किन्तु अतिशीघ्र होने से क्रम लक्षित नहीं होता, इस लिये समकालीन वैध होने का अभिमान भ्रम होता है। प्रस्तुत में भी ज्ञानद्वय की समकालीनता का अभिमान है। For Personal and Private Use Only 15 = 20 उत्तरपक्षी :- प्रत्यक्षसिद्ध तथ्य को सिर्फ कमलपत्रवेध के दृष्टान्त के द्वारा उलटाने का प्रयास करना अयोग्य है । ऐसी तथ्य को उलटाने की चेष्टा करेंगे तो श्वेत शंख के विषय में रोगग्रस्त को 30 होनेवाले पीतभ्रम का उदाहरण ले कर सुवर्ण के पीतप्रत्यक्ष को भी भ्रान्त कहने लग जायेंगे । कमलपत्र वेध प्रसंग में समकालीनता के प्रत्यक्ष को भ्रान्त मानना सयुक्तिक है क्योंकि ऊपर www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy