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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
युगपत् स्वपरप्रकाशनस्वभावस्य स्वयममूर्त्तस्याप्राप्तार्थग्राहिणो युगपत् स्वविषयग्रहणे न कश्चिद् विरोध इति किं न युगपद् ज्ञानोत्पत्ति: ? न च मनोऽपि सूच्यग्रवन्मूर्त्तमिन्द्रियाणि तूत्पलपत्रवत् परस्परपरिहारस्थितस्वरूपाणि न युगपत् व्याप्तुं समर्थमिति न युगपज्ज्ञानोत्पत्तिः; तथाभूतस्य तस्यैवाऽसिद्धेः । तथाहि - सिद्धे तद्विभ्रमे मनःसिद्धिः तत्सिद्धौ च युगपद् ज्ञानोत्पत्तिविभ्रमसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वाद् न 5 मनःसिद्धिः ।
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ननु ‘जुगवं दो णत्थि उवओगा' ( आव. नि. ९७९) इति वचनाद् भवतोऽपि युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिः सिद्धैव। न, मानसविकल्पद्वययौगपद्यनिषेधपरत्वादस्य नेन्द्रिय- मनोविज्ञानयोर्योगपद्यनिषेधः । न च “ विवा - दास्पदीभूतानि ज्ञानानि क्रमभावीनि ज्ञानत्वात्, मानसविकल्पद्वयवद्” इत्यतोऽनुमानात् तद्विभ्रमसिद्धिः;
नीचे रहे हुए सो कमलपत्रों का सम्पर्क सुए के अग्रभाग से एक साथ किया नहीं जा सकता, अतः 10 सभी पत्रों का वेध यानी भेद क्रमशः ही हो सकता है, शीघ्रता के कारण वहाँ क्रम लक्षित न होने से समकालीनता का अभिमान हो सकता है । इस का मतलब यह नहीं है कि सर्वत्र ऐसा ही मान लेना ।
आत्मा क्षयोपशम के मुताबिक स्वपरप्रकाशक ज्ञानस्वभाववाला है, स्वयं अमूर्त है, अप्राप्त यानी सम्पर्क के विना भी अर्थ का ग्राहक है, अत एव सूए की तरह सम्पर्क की जरूर न होने से वह 15 एकसाथ अपने विषय को ग्रहण करे उस में कोई विरोध नहीं है ऐसी स्थिति में क्षयोपशम के बल से स्वभावानुसार एकसाथ अनेक ज्ञान की उत्पत्ति में क्या आश्चर्य है ?
** यौगपद्याभिमान और मन की सिद्धि में अन्योन्याश्रय
पूर्वपक्षी :- मन भी सुए के अग्रभाग जैसा ही सूक्ष्म और मूर्त्त ही है, दूसरी ओर इन्द्रियाँ सो कमलपत्रों की तरह मूर्त्त होने के कारण अलग अलग एक दूसरे से पृथक् रहने के स्वभाववाली हैं। 20 ऐसी इन्द्रियों के साथ मन बिचारा एक साथ कैसे सम्पर्क कर पायेगा ? इस लिये एकसाथ अनेक
ज्ञान की उत्पत्ति शक्य नहीं है ।
उत्तरपक्षी :- मन सुए के अग्रभाग की तरह सूक्ष्म है, मूर्त्त है यह भी कहाँ सिद्ध है, अब तक तो मन की ही सिद्धि नहीं हुई, सूक्ष्मता आदि की बात कहाँ ? देखिये
ज्ञानद्वय का समकालीन
प्रत्यक्ष विभ्रम होने का सिद्ध होने पर ही मन की सिद्धि हो सकती है और मन सिद्ध होने पर 25 समकालीनज्ञानद्वय की उत्पत्ति की प्रतीति विभ्रमरूप होने की सिद्धि होगी । इस तरह अन्योन्याश्रय दोष होने से मन की सिद्धि नहीं हो सकती ।
* 'जुगवं दो णत्थि उवओगा' सूत्र का वास्तविक अर्थ * पूर्वपक्षी :- एकसाथ अनेकज्ञान की अनुत्पत्ति तो आप के मत से भी सिद्ध है में कहा है कि 'एकसाथ दो उपयोग नहीं होते ।'
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उत्तरपक्षी :- वह जो कहा है उस का अर्थ है
'एक साथ दो मानसिक सविकल्पज्ञान नहीं होते ।' अतः इन्द्रियविज्ञान और मनोविज्ञान इन दोनों के समकालीनत्व का निषेध नहीं किया गया । D. नाणम्मिदंसणम्मि अ इत्तो एगयरम्मि उवउत्ता । सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा ।। [ आ०नि० ७९७ ]
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