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खण्ड-४, गाथा-१
अस्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वात्। न चैतदनुमानबाधितत्वात् युगपत्प्रतिपत्त्यनुभवः प्रत्यक्षमेव न भवति; 'अश्रावणः शब्दः सत्त्वात् घटवत्' इत्यनुमानबाधितत्वात् श्रावणशब्दज्ञानस्याप्यप्रत्यक्षताप्रसक्तेः। न च सौगतमतमेतत् न जैनमतमिति वक्तव्यम् “सहभाविनो गुणाः, क्रमभाविनः पर्याया" [ ] इति जैनैरभिधानात् । तथा च सहभावित्वं गुणानां प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम्- [ ]
सुखमालादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम्। शक्तिः क्रियानुमेया स्याद् यूनः कान्तासमागमे ।।
तदेवं मनसोऽसिद्धेर्न घटादिज्ञानं तेन सन्निकृष्टमिति कुतस्तत्राध्यक्षज्ञानोत्पत्तिः ? इति यतस्ततस्तत् प्रतीयेत, न चान्यत् तदुत्पत्तौ पराभ्युपगमेन निमित्तमस्ति, सद्भावे वेन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नत्वादिना तद्ग्राहिणोऽध्यक्षता विरुध्येत। अथ ज्ञानान्तरस्यानध्यक्षत्वेऽपि घटज्ञानग्राहकता भविष्यतीति न धर्म्य
पूर्वपक्षी :- अब तो हमारे लिये ज्ञानक्रमिकत्व की सिद्धि निर्विन बन गयी। अनुमान :- 10 'विवादाधिकरण ज्ञानद्वय क्रमिक होते हैं क्योंकि ज्ञानमय है, जैसे आप के मानसिक सविकल्पज्ञानद्वय ।' इस अनुमान से तो अब अक्रमिकता का प्रत्यक्ष अनुभव बाधग्रस्त बन गया।
उत्तरपक्षी :- नहीं नहीं, इस अनुमान के पहले ही उक्त प्रत्यक्ष अनुभव से क्रमाभाव सिद्ध हो जाने से, इस अनुमान का साध्य क्रमिकत्व प्रत्यक्षबाधित हो गया, तदनन्तर 'ज्ञानमय' हेतु प्रयुक्त होने से वह कालात्ययापदिष्ट दोष का शिकार बन गया है।
15 पूर्वपक्षी :- इस से उल्टा, उक्त अनुमान से 'समकालीनत्वग्राही अनुभवात्मक प्रत्यक्ष ही प्रत्यक्ष रूप नहीं' ऐसा क्यों नहीं सिद्ध होगा। ___ उत्तरपक्षी :- ऐसा उल्टा मानेंगे तो शब्दप्रत्यक्ष का भी विलोप होने की विपदा होगी। देखिये - 'शब्द श्रावणप्रत्यक्ष नहीं है क्योंकि सत है जैसे घट' – इस अनुमान के बाध से ऐसा ही सिद्ध हो जायेगा कि शब्द का प्रत्यक्षानुभव प्रत्यक्षात्मक नहीं, विभ्रम है।
20 ___ पूर्वपक्षी :- आप जो ज्ञान के अक्रमिकत्व को सिद्ध कर रहे हैं वह जैनमत नहीं है, बौद्ध का मत है।
उत्तरपक्षी :- नहीं जी, जैनों का यही मत है। कहा गया है कि 'गुण सहभावी होते हैं, पर्याय क्रमभावी होते हैं।' ज्ञान तो आत्मा का गुण ही है। जैन मनीषियोंने गुणों के सहभावित्व (यानी समकालीनत्व) का निरूपण करते हुए यह कहा है - “महिलामेलाप में आह्लादनस्वरूप सुख, (महिलात्मक) ज्ञेय के परिच्छेदस्वरूप विज्ञान एवं क्रिया से अनुमेय (भोग) शक्ति, इन तीनों का उदय होता है।"
* ज्ञानग्राहक ज्ञान की प्रत्यक्षता असिद्ध * जब मन ही सिद्ध नहीं है तो घटादिज्ञान के साथ मन का संनिकर्ष भी सिद्ध नहीं, अब घटादिज्ञानग्राहक अनुव्यवसाय प्रत्यक्ष का उद्भव भी कैसे होगा ? फलितार्थ यह होगा कि घटादिज्ञान स्वतः या परतः किसी भी हेतु से गृहीत हो सकता है। कारण, मन (जो अभी सिद्ध नहीं है) के 30 अलावा दूसरा तो ज्ञानप्रतीति का, आप के मत में निमित्त ही नहीं है। यदि मीमांसक की भाँति *. न्यायविनिश्चयाद्यखंडे पृष्ठ १२८ मध्ये स्याद्वादमहार्णवनाम्नोद्धृतमिदं पद्यम् ।
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