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खण्ड-४, गाथा-१ चेतनसहितस्य प्रवर्त्तने मनसोऽदृष्टविकलस्य चेतनसहितस्य प्रवृत्तिर्भविष्यतीत्यदृष्टपरिकल्पनावैयर्थ्यं पुनः प्रसज्यते। न च प्रतिनियमनिमित्तमदृष्टकल्पना; तस्यापि स्वतःप्रतिनियतत्वाऽसिद्धेः। 'येनात्मना यद् अदृष्टं निवर्तितं तत् तस्य इति प्रतिनियमसिद्धिः' इति चेत् ? ननु किमिदमात्मनोऽदृष्टनिवर्तकत्वम् ? 'तदाधारभाव' इति चेत् ? ननु समवायस्यैकत्चे आत्मनां च व्यापकत्वेनैकदेशत्वे 'प्रतिनियत एवात्मा प्रतिनियतादृष्टाधारः' इत्येतदेव दुर्घटम् । समवायाऽविशेषेऽपि समवायिनोर्विशेषात् प्रतिनियमे समवायाभावप्रसक्तेः। 5 इत्यात्मसुखाद्योस्तत्संवेदनस्य कथंचित्तादात्म्यमभ्युपेयम् अन्यथा तदेकार्थसमवेतज्ञानग्राह्यत्वेन सुखादयो न किसी एक मन का किसी नियत एक ही आत्मा के साथ सम्बन्ध दुष्कर बन जायेगा। अत एव ईश्वर को अदृष्ट की अपेक्षा रहती है। - तो यह भी निर्दोष नहीं है। कारण, ईश्वर अदृष्ट द्वारा मन को जब प्रेरणा करेगा तब अदृष्ट को तो जड होने के कारण पता ही नहीं है कि मुझे नियत किसी एक आत्मा के प्रति एक ही नियत मन को प्रेरित करना है। ऐसी दशा में प्रतिनियत मन की प्रवृत्ति 10 दुःशक्य बनी रहेगी। यदि कहें कि - अचेतन भी अदृष्ट चेतन संनिहित यानी ईश्वरसंनिहित (ईश्वर अधिष्ठित) हो कर किसी एक नियत मन को ही प्रवृत्त करेगा - तो पुनः अदृष्ट - कल्पना निरर्थक ठहरेगी, क्योंकि ऐसा भी कह सकते हैं कि अचेतन मन चेतन (इश्वर) से अधिष्ठित हो कर किसी नियत एक आत्मा के साथ सम्बन्ध करेगा, बीच में अब अदृष्ट की कल्पना अनावश्यक है। ___ यदि कहा जाय – ईश्वरप्रेरित मन का नियत आत्मा के साथ सम्बन्ध (यानी यह मन इस 15 आत्मा का ही है, दूसरे का नहीं) उपपन्न करने के लिये उस आत्मा के अदृष्ट का प्रभाव मानना ही होगा, अन्यथा उसी आत्मा के साथ मन के सम्बन्ध का प्रतिनियम कैसे होगा ? – (उत्तर) 'वह अदृष्ट उसी आत्मा का ही है अन्य का नहीं' ऐसा प्रतिनियम भी कहाँ सिद्ध है ? अगर कहें कि - 'जिस आत्माने जिस अदृष्ट का निर्माण किया है वह अदृष्ट उसी आत्मा का माना जायेगा - इस प्रकार 'इस आत्मा का यह अदृष्ट' यह प्रतिनियम बन जायेगा' - तो यह ठीक नहीं है, पहले 20 तो यह दिखाईये कि 'अमुक अदृष्ट का उत्पादक यही आत्मा है' ऐसा किस निमित्त से मानेंगे ? 'वही आत्मा उस अदृष्ट का आधार है, अतः वह अदृष्ट उस आत्मा का है' इस तरह की आधारता को निमित्त दिखायेंगे - तो यह भी दुष्कर है। कारण, आप के मत में सभी आत्मा व्यापक और समान देशवर्ती है, समवाय तो एक ही है, वह सभी आत्मा से सम्बद्ध है। इस दशा में यही आत्मा अमुक अदृष्ट का आधार है ऐसा कहना अशक्य है। यदि कहें कि - समवाय एक होने से सर्वात्मसाधारण 25 है फिर भी समवायी आत्माएँ तो पृथक् पृथक् ही है, अतः नियत आधारता घट सकती है – तब तो समवाय की कल्पना ध्वस्त हो जायेगी, आत्मा पृथक् होने से ही अदृष्ट की नियत आधारता बन जाने पर समवाय की कोई जरूर नहीं रहती।
* आत्मा-सुखादि-संवेदन का कथंचिद् अभेद * निष्कर्ष, आत्मादि, सुखादि एवं उन के संवेदन, इन सभी का आपस में कथंचिद् अभेदभाव ही 30 स्वीकार लेना उचित है। अन्यथा सुखादि गुण अपने आधारभूत आत्मा में उद्भूत ज्ञान से ही ग्राह्य होने का नियम असिद्ध हो जायेगा। ‘सुखादि का अभेद जिस आत्मा से होगा उस आत्मा से अभिन्न
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