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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ पुनरिन्द्रियसम्बन्धोपजातज्ञानान्तराद् वेद्यत इति लोकप्रतीतिः, अपि तु प्रथममेव स्वप्रकाशरूपं तदुदयमासादयदुपलभ्यते । ‘आत्मनि क्रियाविरोधः' इति चेत् ? न, स्वरूपेण पदार्थस्य विरोधाभावात् अन्यथा प्रदीपादेरप्यपरप्रकाशविकलस्वरूपप्रकाशविरोधः स्यात् । 'तस्य तत्स्वरूपं कुतः सिद्धमिति चेत् ? प्रदीपादी कुतः ? तथादर्शनमितरत्रापि समानम्।
न चैकस्य स्वभावोऽपरत्राप्यभ्युपगमार्हः, अन्यथा स्वपराऽप्रकाशस्वभावो घटगतः प्रदीपेऽप्यभ्युपगमनीयो भवेत्। न च तदवगमात् पूर्वमप्रतीयमानमपि सुखाद्यभ्युपगन्तुं युक्तम् श्रवणसमयात् प्राक् पश्चाच्च शब्दस्य कर लेने की चेष्टा करने पर कोइ भी हेतु व्यभिचारी नहीं कहा जा सकेगा, व्यभिचार दोष ही नामशेष हो जायेगा। देखिये - 'शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रमेय है, उदा० घट' इस प्रयोग के प्रतिकार में
आत्मा में जब (प्रमेयत्व होने पर भी अनित्यत्व न होने से) प्रमेयत्व हेतु में व्यभिचार प्रदर्शित करेंगे 10 तब व्यभिचारस्थान आत्मादि को भी पक्ष अन्तर्गत कर लेने से व्यभिचार निरवकाश बन जायेगा।
मतलब, यहाँ भी कह सकेंगे ‘आत्मा अनित्य है क्योंकि प्रमेय है, उदा० घट।' 'यहाँ तो प्रत्यक्ष से बाध है' ऐसा कहना व्यर्थ रहेगा क्योंकि सुखादि में स्वभिन्नज्ञानसंवेद्यता अथवा सुखादिसंवेदन में इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यता की सिद्धि के काल में भी प्रत्यक्षबाध तुल्य ही है। ऐसा अनुभव किसी को
नहीं है कि पहले तो घटादि की तरह सुखादि भी अज्ञातरूप से उत्पन्न हो गये, बाद में इन्द्रिय 15 के सम्पर्क से उत्पन्न ज्ञानान्तर से उसका भान हुआ - ऐसी कोई लोकप्रतीति नहीं है। लोकानुभव
तो इस से उलटा है, शुरु से ही सुखादि स्वसंविदित स्वरूप से ही उत्पन्न होते हुए अनुभूत होते हैं। यदि कहें कि - “घटादि स्वयं स्ववेदनक्रियान्वित नहीं होता क्योंकि स्व में स्वसंबंधि क्रिया का विरोध सुविख्यात है, सुशिक्षित नर भी अपने कन्धे पर आरोहण नहीं कर पायेगा (दूसरे के कन्धे
पर चढ सकता है।)” – तो यह कथन गलत हैं, क्योंकि यह न्याय सर्वत्र लागु नहीं होता, स्वविषयक 20 क्रिया जिस पदार्थ का स्वभाव ही है वहाँ कोई विरोध नहीं होता। 'आत्मा स्व को जानता है' यहाँ
स्व में स्वविषयक ज्ञानक्रिया मानने में क्या विरोध है ? अगर ऐसा विरोध प्रामाणिक मानेंगे तो, जिस के प्रकाशन के लिये दसरे प्रदीप का संनिधान जरूरी नहीं होता. ऐसे अपने आप अपना प्रकाश (स्वरूप प्रकाश) करनेवाले प्रदीपादि में भी आप को विरोध प्रसक्त होगा।
यदि पूछा जाय कि - सुखादि में स्वप्रकाश स्वरूपता कैसे सिद्ध हुई ? तो प्रदीपादि के लिये 25 भी ऐसा प्रश्न प्रसक्त होगा। उत्तर में आप कहेंगे कि प्रदीप में तो वैसा सभी को दीखता है -
तो यहाँ हम भी यही कहते हैं कि सुखादि में स्वप्रकाशस्वरूपता सभी को अनुभूत होती है। दोनों में समान बात है।
* स्वभिन्नवेद्यतास्वभाव की प्रदीप - सुखादि में अनुपपत्ति * घटादि के उदाहरण से ज्ञान में स्वभिन्नवेद्यतास्वभाव का अंगीकार अनुचित है। कोई स्वभाव 30 एक में है तो दूसरे में भी उस का स्वीकार उचित नहीं होता। अन्यथा, घट में जैसे स्वपर अप्रकाशकस्वभाव __है वैसे प्रदीपादि में भी स्वपरअप्रकाशकस्वभाव (ज्ञेयत्वहेतु के बल से) मान लेना पडेगा। जिस काल ___ में सुखादि का संवेदन होता है उस के पूर्वकाल में अज्ञातस्वरूप सुखादि के अस्तित्व का स्वीकार
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