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खण्ड-४, गाथा-१
अस्य हेतोरप्रसिद्धविशेषणत्वात्। न हि घटादिज्ञानज्ञानस्याध्यक्षत्वं सिद्धम् इतरेतराश्रयत्वात्। तथाहिमनइन्द्रियसिद्धावस्याध्यक्षत्वसिद्धिः तत्सिद्धौ च सविशेषणहेतुसिद्धेर्मनइन्द्रियसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च घटादिज्ञानाद् भिन्नमपरं ज्ञानं तद्ग्राहकमनुभूयत इति विशेष्यासिद्धश्च हेतुः।
सुखादिसंवेदनेन व्यभिचारी च। तथाहि- तत्संवेदनं 'अध्यक्षत्चे सति ज्ञानम्', न च तज्जन्यमिति व्यभिचारः। अथास्यापि पक्षीकरणाददोषः। तथाहि- सुखादिसंवेदनमिन्द्रियार्थसंनिकर्षजम् अध्यक्षज्ञानत्वात् 5 चक्षुरादिप्रभवरूपादिवेदनवत्, सुखादिर्वा भिन्नज्ञानवेद्यः ज्ञेयत्वात् घटवत्। नन्वेवं व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणे न कश्चिद्धेतुर्व्यभिचारी स्यात्। तथाहि- ‘अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत्' इत्यत्राप्यात्मादेर्व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणान्न व्यभिचारः । शक्यं यत्रापि वक्तुम् ‘अनित्य आत्मादिः प्रमेयत्वात् घटवत्।' न चात्र प्रत्यक्षबाधः अन्यत्रापि तस्य समानत्वात्। न हि सुखाद्यविदितस्वरूपं पूर्वं घटादिवदुत्पन्नं
जैन :- आप के मत में मन इन्द्रिय प्रमाणसिद्ध हो तब तो उपरोक्त कथन ठीक है, किन्तु मन 10 कहाँ सिद्ध है ? प्रत्यक्ष से तो वह सिद्ध नहीं।
* मन इन्द्रिय साधक नैयायिक के अनुमान में हेतु असिद्ध * नैयायिक :- अनुमान से तो सिद्ध है। देखिये – 'घटादि के ज्ञान का (ग्राहक) ज्ञान इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य है, क्योंकि प्रत्यक्ष होते हुए ज्ञानमय है, उदा० चक्षुआदिजन्य रूपादिज्ञान ।
जैन :- यह गलत है क्योंकि हेतु में विशेषण असिद्ध है। घटादि के ज्ञान का ज्ञान 'प्रत्यक्ष' 15 होने में प्रमाण क्या है ? उस के प्रत्यक्षत्व की सिद्धि ही अन्योन्याश्रयदोष से दूषित है - ज्ञान का ज्ञान मनोजन्य है किंतु उस में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि तब होगी जब मन को 'इन्द्रिय' सिद्ध किया जाय। (वही तो अभी साध्यकोटि में है)। जब तक प्रत्यक्षत्व की सिद्धि नहीं होगी तब तक ‘प्रत्यक्ष होते हुए' इस विशेषण से युक्त हेतु की सिद्धि न होने से मन में इन्द्रियजत्व की सिद्धि नहीं होगी। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है। हेतु में विशेषण की असिद्धि उपरांत विशेष्य भी असिद्ध है 20 क्योंकि घटादिज्ञान से अतिरिक्त उस के ग्राहक रूप में कोई दूसरा ज्ञान अनुभवगोचर नहीं है तो 'ज्ञानत्व' हेतु का विशेष्य भी कहाँ सिद्ध है ?
* सुखादिसंवेदन में इन्द्रियसंनिकर्षजन्यत्व हेतु व्यभिचारी * 'प्रत्यक्ष होते हुए ज्ञानत्व' हेतु असिद्ध तो है, सुखादि के संवेदन में व्यभिचारी भी है। देखिये - सुखादि के संवदेन में ‘अध्यक्षत्व एवं ज्ञानत्व' हेतु है लेकिन वह इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से जन्य नहीं 25 है। यहाँ हेतु के साथ साध्य नहीं होने से हेतु में व्यभिचार दोष स्पष्ट है।
नैयायिक :- सुखादि संवेदन भी घटादिज्ञान-ज्ञान के साथ पक्ष में ही अन्तर्गत है, अतः उस में भी हेतु से उक्त साध्य सिद्ध होने पर, कोई दोष (व्यभिचार) सावकाश नहीं है। देखिये – 'सुखादिसंवेदन (पक्ष) इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से जन्य है, क्योंकि वह अध्यक्षज्ञानमय है, उदा० नेत्रादिजन्य रूपादिसंवेदन। अथवा 'सुखादि विषय स्वभिन्नज्ञान से संवेद्य है, क्योंकि 'ज्ञेय' है, उदा० घट। यहाँ स्वभिन्नज्ञानसंवेद्यता 30 सिद्ध होने पर इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यता भी स्वभिन्नज्ञान में अध्यक्षज्ञानत्व हेतु से सिद्ध हो जायेगी।
जैन :- अरे ! इस प्रकार जिस स्थल में व्यभिचार प्रदर्शित किया जाय उस को भी पक्षान्तर्गत
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